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________________ ३४८ सप्ततिकाप्रकरण मिथ्यात्वका परप्रकृति रूपसे संक्रमण नहीं होता। इसके प्रथम स्थितिमें एक प्रावलिप्रमाण काल शेष रहने तक प्रथम स्थितिके दलिकोंकी उदीरणा होती है किन्तु द्वितीय स्थितिके दलिकांकी उदीरणा प्रथम स्थितिमें दो प्रावलि प्रमाण काल शेष रहने तक ही होती है । यहाँ द्वितीय स्थितिके दलिको की उदीरणाको आगाल कहते हैं। इस प्रकार यह जीव प्रथम स्थितिका वेदन करता हुया जत्र प्रथम स्थितिके अन्तिम स्थानस्थिति दलिकका वेदन करता है तब वह अन्तरकरण के ऊपर द्वितीय स्थितिम स्थित मिथ्यात्वके दलिकोको अनुभागके अनुसार तीन भागामें विभक्त कर देता है। इनमेंसे सबसे विशुद्ध भागको सम्यक्त्व कहते है । अर्ध विशुद्ध भागको सम्यग्मिथ्यात्व कहते है और सबसे अविशुद्ध भागको मिथ्यात्व कहते है । यहाँ प्रथम स्थितिके समाप्त होने पर मिथ्यात्वके दलिकका उदय नहीं होनेसे औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है। किन्तु इस सम्यक्त्वसं जीव उपशमणि पर न चढ़कर द्वितीयोपशमसम्यक्त्वसे चढ़ता है। जो वेदक्सम्यम्हष्टि जीव अनन्तानुवन्धी कपाय और तीन दर्शनमोहनीयका उपशम करके उपशम सम्नक्त्वको प्राप्त होता है उसे द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहते हैं । इनमेंसे अनन्तानन्धीके उपशम होनेका कथन तो पहले कर आये हैं अब यहाँ दर्शन मोहनीयके उपशम होनेकी विधि को संक्षेपमें बतलाते हैं। जो वेदक सम्यष्टि जीव सयममे विद्यमान है वह दर्शनमाहनीयकी तीन प्रकृतियोका उपशम करता है। इसके यथाप्रवृत्त आदि तीन करण पहले के समान जानना चाहिये। किन्तु अनिवृत्तिकरणके संख्यात भागांके बीत जाने पर अन्तरकरण करते समय सम्यक्त्वकी प्रथम स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थापित की जाती है, क्योकि यह वेद्यमान प्रकृति है। तथा सम्यग्मिथ्यात्व
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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