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________________ दर्शनमोहनीयकी उपशमना ३४७ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उपशम वेदकमम्यग्दृष्टि जीव ही करते हैं। इसमें भी चारो गतिका मिथ्याडष्टि जीव जव प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है तब मिथ्यात्वका उपशम करता है। मिथ्यात्वके उपशम करनेकी विधि पूर्ववत् है। किन्तु इतनी विशेपता है कि इसके अपूर्वकरणमे गुणसक्रम नहीं होता किन्तु स्थि तिघात, रसघात, स्थितिवन्ध और गुणश्रेणि होती है। मिथ्यादृष्टि के नियमसे मिथ्यात्वका उदय होता है इसलिये इसके गुणश्रोणिकी रचना उदयसमयसे लेकर होती है। अपूर्णकरणके वाट अनिवृत्तिकरणमं भी इसी प्रकार जानना चाहिये । किन्तु इसके सख्यात भागोके बीत जाने पर जब एक भाग शेप रह जाता है तब मिथ्यात्वके अन्तर्मुर्तप्रमाण नीचेके निपेकोको छोडकर इससे कुछ अधिक अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ऊपरके निषेकोका अन्तरकरण किया जाता है। इस क्रियामे न्यूतन स्थितिबन्धके समान अन्तमुहूर्त काल लगता है। यहाँ जिन दलिकोका अन्तरकरण किया जाता है उनमेंसे कुछ को प्रथम स्थितिमें और कुछ को द्वितीय स्थितिमें डाल दिया जाता है, क्योकि मिथ्यादृष्टिके सम्यग्मिथ्यात्व इन दोनोंका या मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यकप्रकृति इन तीनोंका तथा सम्यग्दृष्टि द्वितीयोपशम सम्यक्त्वकी प्राप्तिके समय तीनोंका उपशम करता है । जो जीव सम्यक्त्वसे च्युत होकर मिथ्यात्वमें जाकर वेदक काल को उल्लघनकर जाता है वह यदि सम्यक्त्व की उद्वलना होने के काल में ही उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होता है तो उसके तीनों का उपशम होता है। जो जीव सम्यक्त्वकी उद्वलना के बाद सम्यग्मिथ्यात्व की उद्वलना होते खमय यदि उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करता है तो उसके मिथ्यात्व और सम्यग्मिध्यात्व इन दो का उपशम होता है और जो मोहनीयकी छब्बीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला मिथ्यादृष्टि होता है उसके एक मिथ्यात्व का ही उपशम होता है।
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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