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________________ 'सप्ततिकाप्रकरण तथा मनुष्यगति. पंचेन्द्रियजाति, स, बादर पर्याप्त, सुभग. आदेय, यश कीर्ति और तीर्थकर इन नौ नाम कर्मकी प्रकृतियोंका और उच्चगोत्रका सयोगिकेवली गुणस्थान तक उदय और उदीरणा दोनो होते हैं। किन्तु अयोगिकेवली गुणस्थानमें इनका उदय ही होता है उदीरणा नहीं होती। इस प्रकार पिछली गाथामे उदय और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा जिन इकतालीस प्रकृतियोकी विशेषताका निर्देश किया वे इकतालीस प्रकृतियाँ कौन हैं इसका इस गाथासे ज्ञान हो जाता है। साथ ही विशेपताके कारणका भी पता लग जाता है जैसा कि पूर्व में निर्देश किया ही है। अब किस गुणस्थानमे कितनी प्रकृतियोका बन्ध होता है इमका विचार करते है तित्थंगराहारगविरहियाओं अज्जेइ सव्वपगईओ ।। मिच्छत्तवेयगो सासणो वि इगुवीससेसाओ ॥५६॥ अर्थ--मिथ्यादृष्टि जीव तीर्थकर और आहारकद्विकके विना शेष सब प्रकृतियोका बन्ध करता है। तथा सास्वादनसम्यग्दृष्टि जीव उन्नीसके विना एक्सौ एक प्रकृतियोंका बन्ध करता है ॥५६॥ विशेषार्थ--यद्यपि पाठो कर्मोंकी उत्तर प्रकृतियाँ १४८ हैं। फिर भी वन्ध की अपेक्षा १२० प्रकृतियों ली जाती हैं। इसका मतलब यह नहीं कि शेष २८ प्रकृतियों छोड़ दी जाती हैं। किन्तु इसका यह कारण है कि पाँच बन्धन और पाँच संघात पॉच शरीरके अविनाभावी है जहाँ जिस शरीरका वन्ध होता है वहाँ उस बंधन और संघातका अवश्य बन्ध होता है अतः वन्धमें (१) सत्तरसुत्तरमेगुतरं तु~ ॥ पन्च. सप्त० गा. १४३ । 'सत्तर मेकग्गस्यं ॥-मो० कर्म० गा १०३ ।
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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