SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 407
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उदीरणाकी विशेषता ३२५ उदय ही होता है उदीरणा नहीं होती। इसके अतिरिक्त शेष कालमें उदय और उदीरणा एक साथ होती है और इनका विच्छेद भी एक साथ होता है। साता और असाता वेदनीयकी उदय और उदीरणा प्रमत्तसयत गुणस्थान तक एक साथ होती है किन्तु अगले गुणस्थानोमे इनका उदय ही होता है उदीरणा नहीं होती। प्रथम सम्क्त्व को उत्पन्न करनेवाले जीवके अन्तरकरण करनेके पश्चात् प्रथम स्थितिमें एक प्रावलि प्रमाण कालके शेष रहने पर मिथ्यात्वका उदय ही होता है उदीरणा नहीं होती। क्षायिक सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाले जिस वेदक सम्यग्दृष्टि जीवने मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका क्षय करके सम्क्त्वकी सर्व अपवर्तनाके द्वारा अपवर्तना करके अन्तर्मुहूंत प्रमाण स्थिति शेप राखी है। तदनन्तर उदय और उदीरणाके द्वारा उसका अनुभव करते हुए जब एक आवलि स्थिति शेष रह जाती है तव सम्यक्त्व का उदय हो होता है उदीरणा नहीं होती। तीन वेदोमेंसे जिस वेदसे जीव श्रेणिपर चढ़ता है उसके अन्तरकरण करनेके बाद उम वेढकी प्रथम स्थितिमे एक प्रावलि प्रमाण कालके शेप रहने पर उदय ही होता उदीरणा नहीं होती। चारों ही आयुओका अपने अपने भवकी अन्तिम श्रावलि प्रमाण कालके शेष रहने पर उदय ही होता है उदीरणा नहीं होती किन्तु मनुष्यायुमे इतनी और विशेषता है कि इसका प्रमत्तसयत गुणम्थानके वाद उदय ही होता है उदीरणा नहीं हाती। (१) दिगम्बर परपरामें निद्रा और प्रचलाकी उदय और सत्त्वव्युच्छित्ति क्षीणमोह गुणस्थानमें एक साथ बतलाई है, इसलिये इस अपेक्षासे इनमें से जिस उदयगत प्रकृतिकी उदयव्युच्छित्ति और सत्त्वव्युच्छित्ति एक साथ हागो उसकी उदयव्युच्छित्तिके एक श्रावलिकाल पूर्व ही उदीरणा व्युच्छित्ति हो जायगी।
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy