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________________ है। हीरामाई की शास्त्र-जिज्ञासा और परिश्रमशीलता का मैं साक्षी हूँ। मैंने देखा है कि श्रागम, दीकाएं या अन्य कोई भी जैन ग्रन्य सामने आया तो उसे पूरा करके ही छोड़ते हैं। उनका मुख्य प्राकलन तो कर्मशास्त्रका, खासकर श्वेताम्बरीय समग्र कर्मशास्त्र का है, पर इस आकलन के आसपास उनका शास्त्रीय पाचन-विस्तार और चिंतन-मनन इवना अधिक है कि जैन सम्प्रदाय के तत्त्वज्ञान की छोटी बड़ी बातो के लिए वे जीवित ज्ञानकोष जैसे बन गये हैं। । . अन्य साम्प्रदायिक विद्वानों की तरह 'उनका मन मात्र सम्प्रदायगामी व संकुचित नहीं है। उनकी दृष्टि सत्य जिज्ञासा की ओर मुख्यतया मैंने देखी है। इससे वे सामाजिक, राष्ट्रीय या मानवीय कार्यों का मूल्याङ्कन करने में दुराग्रह से गलती नहीं करते । गुजरात में पिछले लगभग ३५ वर्षों में जो जैन धार्मिक अध्ययन करनेवाले पैदा हुए हैं, चाहे वे गृहस्थ हो या साधु-साध्वी, उनमें से शायद ही कोई ऐसा हो जिसने थोड़ा या बहुत हीराभाई से पढ़ा या सुना न हो। कर्मशास्त्र के अनेक जिज्ञासु साधुसाध्वी और श्रावक-श्राविकाए हीराभाई से पढ़ने के लिए लालायित रहते हैं और वे भी आरोग्य की बिना परवाह किये सबको सतुष्ट करने का यथासभव प्रयत्न करते रहते हैं। ऐसी है इनके शास्त्रीय तपकी संक्षिप्त कथा। * मैने इस्वी सन् १९१६-१९१७ मे कर्मग्रन्यों के हिंदी अनुवाद का कार्य आया तथा काशी में प्रारम्भ किया और जैसे जैसे अनुवाद कार्य करता गया वैसे वैसे, उस कर्मग्रन्य के, हिंदी अनुवाद की प्रेसकोपी प्रेस में छपने के लिए भेजने के पहले हीराचदभाई के पास देखने व सुधार के लिए भेजता गया। १९९१,तक में चार हिंदी कर्मग्रन्य तैयार
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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