SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना लिना गया है। अमितिगतिने इसे विक्रम सम्वत् १०७३ में पूरा किया था। इसमें वही क्रम स्वीकार किया गया है जो प्राकृत पंचसंग्रहमें पाया जाता है। केवल नामकर्मके उदयस्यानोंका विवेचन करते समय प्राकृत परसग्रहके क्रमको छोड़ दिया गया है। प्राकृत पंचसंग्रहमें नाम कर्मका २० प्रकृतिक उदयस्थान नहीं बनलाया है। प्रतिज्ञा करते समय इसमें भी २० प्रकृतिक उदयस्यानका निर्देश नहीं किया है। किन्तु उदयस्थानोंका व्याख्यान करते समय इसे स्वीकार कर लिया है। गोम्मटमार जीवकाण्ड और कर्मकाण्डमें भी पदसंग्रहका पर्याप्त उपयोग किया गया है। कर्मकाण्डमें ऐसे दो मतोंका उल्लेख मिलता है जो स्पष्टतः प्राकृत पंचसंग्रहकी सप्ततिकासे लिये गये जान पढ़ते हैं। एक मत अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उपशमनावाला है और दुमरे मतका सम्बन्ध कर्मकाण्डमें बतलाये गये नामकर्मके सस्वस्थानोंसे है। दिगम्बर परम्परामें ये दोनों मत प्राकृत पचसमहकी सप्ततिकाके सिवा अन्यत्र देखने में नहीं आये। यद्यपि फर्मकाण्डमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कका उपशम होता है इस वातका विधान नहीं किया है तथापि वहाँ उपशम श्रेणिमें मोहनीयकी २८ प्रकृतियोंकी भी सेंता बतलाई है। इससे सिद्ध होता है कि नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती अनन्तानुबन्धीके उपशमवाले मतसे भलीमाति परिचित थे। दूसरे मतका विधान करते हुए गोम्मटसारके त्रिभंगी प्रकरणमें निम्नलिखित गाथा आई है - (१) त्रिसप्तत्यधिकेऽब्दाना सहने शवविद्विषः । मसूतिकापूरे जातमिदं शालं मनोरमम् ॥' अ० पंचस प्र०। (२) देखो अ• पंचसं० पृ० १६८ । (३) देखो अ० पंचसं० पृ० १७६1 (6) देखो गो० कर्म० गा० ५११ ।
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy