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________________ 4& २०६ "संप्ततिकाप्रकरण इनके विकल्प से चार भंग हुए। इस प्रकार २६ प्रकृतिक उदयस्थानके. कुल भंग ११ हुए । तदनन्नर प्राणापान पर्याप्त से पर्याप्त हुए जीवकी अपेक्षा उच्च्चान सहित छत्रीस प्रकृतिक उदवस्थानमें औरत में किसी एक प्रकृतिके मिला देने पर २७ प्रकृतिक उदयस्थान होना है। यहां भी पहले के समान नप के साथ दो मंग और उद्योत के साथ चार भंग इस प्रकार कुन्त छह भंग होते है। ये पांचों स्थानों के भंग एकत्र करने पर चादर पर्यातक के कुल भंग २९ होते हैं । तथा जैसा कि हम पहले लिखाये हैं तनुसार यहां भी १२,८८, ८६, ८० और ७८ प्रकृतिक पांच सत्त्वम्थान होते हैं। फिर भी पांच वयस्थानों के जो २१ मंग हैं उनमें से इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान के दो भंग, २४ प्रकृतिक उदयस्थानमें चैकिय चादर वायुकायिक के एक भंग को छोड़कर शेष चार भंग तथा २५ और २६ प्रकृतिक उदयत्यानों में प्रत्येक और यशःकीर्निके साथ प्राप्त होनेवाला एक एक भंग इस प्रकार इन आठ भंगों में से प्रत्येक उपयुक्त पांचों सत्त्वस्थान होते हैं । किन्तु शेष २१ में से प्रत्येक भंग ७८ प्रकृतिक सत्त्वन्यान को छोड़कर शेष चार चार सत्त्वस्थान होते हैं । वागे गायामें किये गये निर्देशानुसार पर्याप्तक विक केन्द्रियों में वादियान और यथासम्भव उनके भंग बतलावे है - विकलेन्द्रिय पर्याप्नक जीव भी नियंत्रगति और मनुष्यगति के योग्य प्रकृतियोंका हो बन्ध करते हैं अतः इनके मी २३, २५, २६, २९ और ३० प्रकृतिक पांच वन्यस्थान और तदनुसार इनके कुल मंग १३९९७ होते हैं । तथा उदयन्थानों को अपेक्षा विचार करने पर यहां २१, २६, २८, २९, ३० र ३१ प्रकृतिक छह उदयस्थान बन जाते हैं। इनमें से २१ प्रकृतिक उदयस्थान में तेजस, कार्मण, गुरुवु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, वर्णादि चार,
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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