SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 280
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६८ सप्ततिका प्रकरण मनुष्यगति दोनो में होता है, अतः यहां इस अपेक्षासे चार भंग प्राप्त होते हैं । तथा इन सात जीवस्थानोमें से प्रत्येक में ९२,८८, ८६, ८० और ७८ प्रकृतिक पांच पांच सत्त्वस्थान होते हैं । अपर्याप्त अवस्थामें तीर्थकर प्रकृतिकी सत्ता सम्भव नहीं, त. इन सातो जीवस्थानो में ९३ और ८९ ये दो सत्त्वस्थान नहीं होते । किन्तु मिथ्यादृष्टि गुणस्थान सम्बन्धी शेप सत्त्वस्थान यहां सम्भव है अत' यहा उक्त पाच सत्त्वस्थान कहे हैं । 1 इसके बाद गाथामें सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके बन्धादिस्थानो की सख्याका निर्देश किया है, अत उसके वन्धादिस्थानोका और यथासम्भव उनके भंगोका निर्देश करते हैं- सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीव भी मरकर मनुष्यगति और तिर्यंचगतिमे ही उत्पन्न होता है, इसके तत्प्रायोग्य प्रकृतियोका ही वन्ध होता है। यही सवय है कि इसके भी २३, २५२६, २९ और ३० प्रकृतिक पांच बन्धस्थान होते हैं। यहां भी इन स्थानोके कुल भंग १३९१७ होते हैं । यद्यपि पर्याप्तक एकेन्द्रियके २१, २४, २५, २६, और २७ प्रकृतिक पांच उदयस्थान बतलाये हैं पर सूक्ष्म जीवके न तो आपका ही उदय होता है और न उद्योतका ही अत इसके २७ प्रकृतिक उदयस्थानको छोड़कर शेष २१, २४, २५ और २६ ये चार उदयस्थान होते हैं। और इसी सबब से गाथामे इसके चार उदयस्थान कहे हैं। इनमें से २१ प्रकृतिक उदयस्थानमे वे ही प्रकृतियां लेनी चाहिये जो सूक्ष्म अपर्याप्तकके वतला आये हैं । किन्तु यहां पर्याप्तक सूक्ष्म जीवस्थान विवक्षित है, अत अपर्याप्तकके स्थान में पर्याप्तक का उदय कहना चाहिये । यह २१ प्रकृतिक उदयस्थान अपान्तराल गतिमें होता है । प्रतिपक्ष प्रकृतियो का अभाव होनेसे इसका एक ही भंग है । इस उदयस्थानमें औदारिक शरीर, हुंडसंस्थान, उपघात तथा प्रत्येक और साधारणमे से कोई एक 1 J
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy