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________________ १६२ सप्तविनाप्रकरण न्यान; ७,८.६ और १० प्रकृतिक चार उदयन्यान और ०८,२७ और २६प्रकृतिम तीन सत्वन्यान होते हैं। इनके निट्यावष्टि गुणस्थान होता है इस लिये तो इनके २२ प्रकृतिक वन्धम्यान रहा। तथा नास्वादन सम्यग्दृष्टि जीव मरकर इन जीवन्थानाम भी उत्पन्न होने हैं इमलिये इनले २१ प्रकृतिक बन्धस्थान कहा । इस प्रकार इन पांत्र जीवन्यानोंमें २२ और २१ ये बा बन्यन्यान होते हैं यह सिद्ध हुआ। इनमें से २२ प्रकृतिक न्यन्यन ६ और २१ प्रकृतिक मन्वन्यानक? भंग होते हैं जिनका खुलासा पहले किया ही है। नया इन जीवस्थानोंमें ऊपर जो चार उदयस्थान बतलाये है सो उनमें से २१ प्रऋतिक न्यन्यानमे ५, और ९ तथा २२ ऋतिक न्यथानमें ८, ९ और १० ये तीन तीन उदयम्बान होते हैं। इन जीवन्यानाम भी एक नपुंसवेदना ही उदय होता है ऋत यहां भी ७ ८ और ९ प्रकृतिक उड्यन्यानके क्रमश ८,१६ और ८ भंग होंगे। तथा इसी प्रकार ८.९ और १० प्रकृतिक उदयस्यानके भी ८, १६ और ८नंग हॉगे। विन्तु चूर्णिकारका मत है कि असंनि लवधिपर्याप्त व्यायोग्य तीन वेदों में से मिली एक वेदका उदय होता है. अतः इस मतके अनुसार अनजी लब्धिपर्याप्तम्के सात आदि जयन्यानाम से प्रत्येक ८ मंग न होकर २४ भंग होंगे। तथा इन जीवस्यानों में जो २८, २७ और २७ चे तीन नत्वस्थान बतलाये हैं सो इनवागरण न्पष्ट ही है। अब शेष रहा पर्याप्त संनी पंचन्द्रिय नीवसमाम तो
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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