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________________ १८६ सप्ततिकाप्रकरण गोत्र कर्मके पर्याप्त संजी पचेन्द्रिय जीवस्थानमे ७ भग और शेष तेरह जीवस्थानोमेंसे प्रत्येकमें तीन भंग होते हैं।' इसका यह तात्पर्य है कि पर्याप्त संनी पंचेन्द्रिय जीवस्थानमे (१) असाताका बन्ध, असाताका उदय और साता असाता दोनोका सत्त्व (२) असाताका बन्ध साताका उदय और साता असाता दोनोका सत्व(३) सताका बन्ध, असाताका उदय और साता असाता दोनोका सत्त्व (४) साताका बन्ध, साताका उदय और साता असाना दोनोका सत्त्व (५) असाताका उदय और साता असाता दोनोका सत्त्व (६) साताका उदय और साता असाता दोनोका सत्व (७) असाता का उदय और असाताका सत्व तथा (८) साताका उदय और साताका सत्त्व ये आठ भग होते हैं क्यो कि इस जीवसमासमें १४ गुणस्थान सम्भव हैं अतः ये सव भंग बन जाते हैं। किन्तु प्रारम्भके १३ जीवस्थानोंमेसे प्रत्येकमें इन । आठ भगोमेसे प्रारम्भके चार भंग ही प्राप्त होते हैं क्योकि इनमें साता और असाता इन दोनोंका यथासम्भव बन्ध, उदय और सत्त्व सर्वदा सम्भव है। ___ तथा पर्याप्त सजी पचेन्द्रिय जीवस्थानमे (१) नीचका बन्ध, नीच का उदय और नीचका सत्त्व (२) नीचका बन्ध, नीचका उदय और उच्च नीच इन दोनोका सत्त्व (३) नीचका बन्ध, उच्चका उदय और उच्च नीच इन दोनोका सत्त्व (४) उच्चका बन्ध, नीचका उदय और उच्च नीच इन दोनोका सत्त्व (५) उच्चका बन्ध, उच्चका उदय और उच्च नीचका सत्त्व (६) उच्चका उदय और उच्च नीच इन दोनोंका सत्त्व तथा (७) उच्चका उदय और उच्नका सत्त्व ये सात भंग प्राप्त होते हैं। इनमें से पहला भंग ऐसे संज्ञियो के होता है जो अग्निकायिक और वायुकायिक. पर्याय से आकर संज्ञियो में उत्पन्न होते हैं,
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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