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________________ जीवसमासामें भंगविचार सब कुछ सन्भव है जिससे इस जीवस्थानमें दर्शनावरण कर्मकी उत्तर प्रकृतियों के पन्ध उदय और सत्त्वकी अपेक्षा ११ भग प्राप्त होते हैं। यही मवव है कि गाथामें इस जीवस्थानमें दर्शनावरण कर्मके ११ भगोकी सूचना की है। किन्तु समान्यसे सवेध चिन्ता के समय (पृष्ट ३२ मे ३६ तक ) इन ११ भगोंका विचार कर आये हैं, अत. यहां उनका पुन खुलासा नहीं किया जाता है। स्वाध्याय प्रेमियोको वहाँमे जान लेना चाहिये। अब जीवन्थानोमे वेदनीय आयु और गोत्र कर्मके भग बतलाते हैं - वेयणियाउगोए विभज मोहं परं चोच्छं॥३५॥ अर्थ-वेदनीय. श्रायु और गोत्र कर्मके जो वन्धादि स्थान हैं उनका जीवन्यानोंमे विभाग करके तदनन्तर मोहनीय कर्मका व्याख्यान करगे। विशेपार्थ--उक्त गाथाके तृतीय चरणमें वेदनीय, आयु और गोत्रके विभागका निर्देशमात्र करके चौथे चरणमे मोहनीयके कहनेकी प्रतिना की गई है। ग्रन्यकर्ताने स्वय उक्त तीन कर्मो के भगोका निर्देश नहीं किया है और न यह हा बतलाया है कि किस जीवन्यानमें कितने भग होते है। किन्तु इन दोनो वानोका विवेचन करना जरूरी है, श्रत अन्य आधारसे इसका विवेचन किया जाता है। भाप्यमे एक गाथा पाई है जिसमें वेदनीय और गोत्रके मगीका कथन १४ जीवन्थानोकी अपेना किया है अत यहाँ वह गाथा उद्धृन की जाती है 'पन्जत्तगतनियरे अट्ठ चटक च वेयणियभगा। सत्तग तिग च गोए पत्तेय जीवठाणेसु ।' अर्थात् -'पयांप्न सक्षी पचेन्द्रिय जीवस्थानमे वेदनीय कर्मके आठ भग और शेप तेरह जीवम्थानोमे चार भग होते हैं। तथा
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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