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________________ वन्धस्थानत्रिकके संवेधभंग १७५ इसी प्रकार २५, २७, २८, २९ और ३० इन उदयस्थानोमें भी चिन्तन कर लेना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि नारकी जीवके ३० प्रकृतिक उदयस्थान नहीं है । क्योकि ३० प्रकृतिक उद यस्थान उद्योतके सद्भावमे प्राप्त होता है परन्तु नारकीके उद्योतका उदय नहीं पाया जाता इस प्रकार सामान्यसे ३० प्रकृतियोका बन्ध करनेवाले जीवोके २१ प्रकृतियोके उदय में ७, २४ प्रकृतियो के उदयमें ५, २५ प्रकृतियोके उदयमें ७, २६ प्रकृतियोंके उदयमें ५, २७ प्रकतियोके उदयमें ६, २८ प्रकृतियोंके उदयमें ६, २९ प्रकृतियो के उयमे ६, ३० प्रकृतियोंके उदयमे ६ और ३१ प्रकृतियांके उदयमे ४ सत्त्वस्थान होते हैं । जिनका जोड़ ५२ होता है । अत्र ३१ प्रकृतिक बन्धस्थानमे उदयस्थान और सत्तास्थानोका विचार करते हैं। बात यह है कि तीर्थकर और आहारक सहित देवगतिके योग्य ३१ प्रकृतियो का बन्ध अप्रमत्तसयत और अपूर्वकरण इन दो गुणस्थानों में ही प्राप्त होता है परन्तु इनके न तो विक्रिया ही होती है और न आहारक समुद्धात ही होता है इसलिये यहाँ २५ प्रकृतिक आदि उदयस्थान न होकर एक ३० प्रकृतिक उदयस्थान ही होता है। चूँकि इनके आहारक और तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध होता है, इसलिये यहाँ एक ९३ प्रकृतिक ही स्थान होता है । इस प्रकार ३१ प्रकृतिक व धस्थानमें एक ३० प्रकृतिक उदयस्थान और एक ९३ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है यह सिद्ध हुआ । अब एक प्रकृतिक वन्धस्थानमे उदयस्थान और सत्त्वस्थान कितने होते हैं इसका विचार करते हैं। एक प्रकृतिक वन्धस्थानमे एक यश कीर्ति प्रकृतिका ही बन्ध होता है जो अपूर्व करके सातवे भागसे लेकर दसवे गुणस्थान तक होता है। यह जीव अत्यन्त विशुद्ध होनेके कारण वैक्रिय और आहारक समुद्घातको
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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