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________________ नामकर्मके बन्धस्थान १२९ बाँधता है । यहाँ भी वे ही आठ भग होते हैं । इस प्रकार कुल भंग सत्रह होते हैं । तीनेन्द्रिय और चौइन्द्रियके योग्य प्रकृतियोंको बाँधनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवके भी पूर्वोक्त प्रकारसे तीन तीन बन्धस्थान होते है । किन्तु इतनी विशेषता है कि तीनेन्द्रियके योग्य प्रकृतियो मे तीनइन्द्रिय जाति और चौइन्द्रियके योग्य प्रकृतियो में चौडद्रियजाति कहनी चाहिये । भग भी प्रत्येकके सत्रह सत्रह होते हैं । इस प्रकार कुल भग इक्यावन होते हैं । कहा भी है 'एग टू विगलिंदियारण इगवण तिरह पि ।' अर्थात् 'विकलत्रयमेसे प्रत्येकके योग्य वेधनेवाले, २५, २९ और ३० प्रकृतिक वन्धस्थानोके क्रमश एक, आठ और आठ भंग होते है । तथा तीनोके मिलाकर इक्यावन भग होते हैं ।' तिर्यंचगति पचेन्द्रियके योग्य प्रकृतियों का बन्ध करनेवाले जीव के २५, २९ और ३० ये तीन वन्धस्थान होते हैं । इनमें से पच्चीस प्रकृतिक वन्धस्थान तो वही है जो द्वीन्द्रियके योग्य पच्चीस प्रकृतिक वन्धस्थान बनला श्राये हैं । किन्तु वहाँ द्वीन्द्रिय जाति कही है सो उसके स्थान मे पचेन्द्रिय जाति कहनी चाहिये । यहाँ एक भग होता है । उनतीम प्रकृतिक वन्धस्थान में तिर्यंचगति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी पचेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, औदारिक आगोपाग, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, छह सस्थानोमे से कोई एक सस्थान,छह सहननोमेसे कोई एक सहनन, वर्णादिक चार, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्रास, प्रशस्त और अप्रशस्त विहायोगति मेसे कोई एक, त्रस, बादर, पर्याप्तक, प्रत्येक, स्थिर और अस्थिरमे से कोई एक शुभ और अशुभमें से कोई एक, सुभग और दुर्भगमे से कोई एक सुस्वर और दुःस्वरमेंसे कोई एक, आदेय और ९
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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