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________________ ૨૨૮ सप्ततिकाप्रकरण : अस, चादर, अपर्याप्तक, प्रत्येक, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयश:कीर्ति और निर्माण इन पचीस प्रकृतियोका वन्ध होता है। अत: इनका समुदाय रूप एक पच्चीस प्रकृतिक वन्धस्थान कहलाता है । इस स्थानको अपर्याप्तक द्वीन्द्रियके योग्य प्रकृतियोको वाँधनेवाले मिथ्यारष्टि मनुष्य और तिच बाँधते हैं। यहाँ अपर्याप्तक प्रकृतिके साथ केवल अशुभ प्रकृतियोंका ही वन्ध होता है शुभ प्रकृतियोका वन्ध नहीं होता, अतः एक ही भंग होता है। इन पचीस प्रकृतियोमेसे अपर्याप्तको घटाकर पराघात, उच्छास, अप्रशस्तविहायोगति, पर्याप्तक और दुःस्वर इन पाँच प्रकृतियोके मिला देनेपर उनतीस प्रकृतिक वन्धस्थान होता है। इसका कथन इस प्रकार करना चाहिये--तिर्यंचगति, तिथंचगत्यानुपूर्वी, द्वीन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, औदारिक श्रागोपांग, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, सेवार्तसहनन, वर्णादि चार, अगुरुलघु, पराघात, उपघात, उच्छ्रास, अप्रशस्तविहायोगति, त्रस, वाटर, पर्याप्तक, प्रत्येक, स्थिर और अस्थिरमेंसे कोई एक, शुभ और अशुभमेसे कोई एक, दुस्वर, दुर्भग, अनादेय, यश कीर्ति और अयश.कीर्तिमेसे कोई एक तथा निर्माण इस प्रकार उनतीस प्रकृतिक वन्धस्थानमें ये उनतीस प्रकृतियाँ होती हैं, अतः इनका समुदाय रूप एक उनतीस प्रकृतिक वन्धस्थान कहलाता है। यह चन्धस्थान पर्याप्तक द्वीन्द्रियके योग्य प्रकृतियोको बाँधनेवाले मिथ्याडष्टि जीवके होता है। यहाँ पर स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ और , यश कीर्ति-अयश.कीर्ति इन तीन युगलोमेसे प्रत्येक प्रकृतिका विकल्पसे वन्ध होता है, अत: आठ भंग प्राप्त होते हैं। तथा इन उनतीस प्रकृतियोंमें उद्योत प्रकृतिके मिला देनेपर तीस प्रकृतिक, वन्धस्थान होता है. इस स्थानको सी पर्याप्त-दो इन्द्रियूके योग्य प्रकृतियोको ,बाँधनेवाला मिश्यादृष्टि ही
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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