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________________ ११४ सप्ततिकाप्रकरण करता है और कोई मनुष्य मर्वविरतिको भी ग्राम करता है, ऐसा नियम है। शतक वृहच्चूर्णिमें भी कहा है___ 'उसमसन्माइटी अंतरकरणे ठिओ कोड देसविरई कोइ पमनापमत्तभावं पि गच्छइ सासायणो पुण न किमवि लहइ। अर्थात् 'अन्तरकरणमें स्थित कोई उपशम सन्यम्वष्ट्रिजीव देशविरतिको प्राप्त होता है और कोई प्रमत्तसंयत और अप्रमत्त संयत भावको भी प्राप्त होता है, परन्तु साम्वादन सम्यग्त्रष्टि जीव इनमें से किसीको भी नहीं प्राप्त होता है। वह केवल मिथ्यात्व गुणस्थानमें ही जाता है। इस प्रकार उपशम मन्यन्त्रष्टि जीवको देशविरत गुणस्थानको प्राप्ति कैसे होती है यह बतलाया, किन्तु वेदक सन्यक्त्वके साथ देशविरतिके होनेमें ऐसी खास अड़चन नहीं है, अतः देशविरत गुणस्थानमें वेदग सम्यन्त्रष्टियाके २८ प्रकृतिक सत्वस्थान भी वन जाता है। विन्तु २४ प्रकृतिक सत्त्वस्थान उन्हीं तियचोंके होता है, जिन्होंने अनन्तानुवन्धीकी विसयोजना की है और ये जीव वेदक सम्यग्दृष्टि ही होते हैं, क्योंकि तिगतिमें श्रीपशामिक सम्बन्ष्टि के २४ प्रकृतिक सत्वन्यानकी प्राप्ति सम्भव नहीं है। इन दो सचास्थानोंके अतिरिक्त वियंच देशविरतके शेष २३ श्रादि सब सत्तास्यान नहीं होते, क्योंकि वे क्षायिक सम्यक्त्वको उत्पन्न करने - (१) जयघाला टीझमें स्वामीका निर्देश करते समय चारों गतियोंके । बावामी २४ प्रकृतिक सत्तस्यानका स्वानी बनलाया है। इसके अनुसार प्रचक गतिश उपशम सन्यदृष्टि जीव अनन्तानुबन्वीको विसंयोजना कर सकता है । कर्मप्रकृति के उपशमना प्रकरणी माया ३१ से भी इसकी पुष्टि होती है। वहाँ चारों गति धीवको अनन्तानुबन्वीची विसंयोजना करनेवाला बतलाया है।
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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