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________________ १०६ - सप्ततिकाप्रकरण कहा है वह ठीक ही कहा है । अव रहे दो और एक प्रकृतिक उदयस्थान सो ये अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त कालतक ही पाये जाते हैं, अत इनका भी उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही है । इन सब उदयस्थानोका जघन्य काल एक समय कैसे है, अब इसका खुलासा करते हैं—जब कोई एक जीव किसी विवक्षित उदयस्थानमे या उसके किसी एक विवक्षित भगमें एक समय तक रहकर दूसरे समय में मरकर या परिवर्तनक्रमसे किसी अन्य गुणस्थानको प्राप्त होता है तब उसके गुणस्थानमें भेड़ हो जाता है, वन्धस्थान भी बदल जाता है और गुणस्थानके अनुसार उदयम्थान और उसके भंगोमें भी फरक पड़ जाता है, त. सव यस्थानोंका और उनके भंगोंका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है । इस प्रकार वन्धस्थानोंका उदयस्थानोके साथ परस्पर संवैधका कथन समाप्त हुआ । हो गया तो एक प्रकृतिक उदयस्थानका जघन्य काल एक समय प्राप्त हो जाता है। दो प्रकृतिक उदयस्थानके जघन्य काल एक समयको भी इसी प्रकार प्राप्त करना चाहिये । जो जीव उपशमश्रेणिसे उतरकर पूर्व करणमें एक समय तक भय और जुगुप्सा के बिना चार प्रकृतिक उदयस्थानको प्राप्त होता है और दूसरे समय में मर कर देव हो जाता है या भय और जुगुप्सा के उदयके विना चार प्रकृतियों के साथ अपूर्व करणमें प्रवेश करता है और दूसरे समयमें भय या जुगुप्सा या दोनोंका उदय हो जाता है। उसके चार प्रकृतिक उदयस्थान का जघन्य काल एक समय प्रात होता है । इसी प्रकार आगे के उदयस्थानोंका जघन्य काल एक समय यथासम्भव प्रकृतिपरिवर्तन, गुणस्थान परिवर्तन और मरण को अपेक्षा से प्राप्त कर लेना चाहिये । यह तो जघन्य काल की चर्चा हुई । श्रव उत्कृष्ट कालका विचार करते हैं - एक प्रकृतिक उदयस्थान या दो प्रकृतिक उदयस्थान ये उपशमश्रेणि या
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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