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________________ १०४ सप्ततिकाप्रकरण हैं उनका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। चार प्रकृतिक उदयस्थानसे लेकर दस प्रकृतिक उदयस्थान तकके लिया जाता है तव ६६७१ पदवृन्द प्राप्त होते हैं और जब इस मतको छोड़ दिया जाता है त ६६४७ पदमृन्द प्राप्त होते हैं। पञ्चसंग्रहके सप्ततिकामें ये दो सख्याएँ तो वतलाई ही हैं किन्तु इनके अतिरिक चार प्रकारके पदवृन्द और वतलाये हैं। उनमे मे पहला प्रकार ६९४० का है । सो यहाँ वन्धावन्धके भेदसे एक प्रकृतिक उदयके ११ भग न लेकर कुल ४ भग लिये हैं और इस प्रकार ६९४७ मेसे ७ भग कम होकर ६६४० सख्या प्राप्त होती है। शेष तीन प्रकारके पदवृन्द गुणस्थानभेदसे बतलाये हैं। जो क्रमश: ८४७७, ८४८३ और ८५०७ प्राप्त होते हैं। इनका व्याख्यान सुगम है इसलिये सकेतमात्र कर दिया है। दिगम्बर परम्परामें ये पदवृन्द कर्मकाण्डम बतलाये हैं । वहाँ इनकी प्रकृति विकल्प सजा दी है। कर्मकाण्डमें जैसे उदयविकल्प दो प्रकारसे बतलाये हैं। वैसे प्रकृतिविकल्प भी दो प्रकारसे बतलाये हैं। पुनरुक उदयविकल्पोंकी अपेक्षा इनकी संख्या ८५०७ वतलाई है और अपुनरुक्क उदयविकल्पोंकी अपेक्षा इनकी संख्या ६६४१ वतलाई है। पञ्चसंग्रहसप्ततिका गुणस्यान मैदसे जो ८५०७ पदयन्द बतलाये है वे और कर्मकाण्डके पुनरुक्त प्रकृतिविकल्प एक हैं । तथा पञ्चसंग्रहसप्ततिका जो ६६४० पदवृन्द बतलाये हैं उनमें १ भग और मिला देने पर कर्मकाण्डमें बतलाये गये ६६४१ प्रकृ. तिविकल्प हो जाते है। यहाँ पचसग्रहसप्ततिकामें एक प्रकृतिक उदयस्थानके कुल ४ भग लिये गये है और कर्मकाण्डमें गुणस्थानभेदमे ५ लिये गये हैं अतएव एक मग बढ गया है। यहाँ भी यद्यपि सख्यानोंमे थोड़ा बहुत अन्तर दिखाई देता है, पर वह विवक्षाभेदसे ही अन्तर है मान्यताभेद से नहीं । (१) 'एकिस्से दोण्ह चदुण्ह पंचण्ह छह सत्तण्ह अहह एवण्हं दसण्हं पयडीणं पवेसगो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णण एयसमो।
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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