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________________ ८६ सप्ततिकाप्रकरण । 'अणंतागुवंधुदयरहियस्स सासणभावो न संभवइ ।' अर्थात् अनन्तानुवन्धीके उदयके विना सास्वादन सम्यक्त्वका प्राप्त होना सम्भव नहीं है। शंका-जिस समय कोई एक जीव मिथ्यात्वके अभिमुख तो होता है किन्तु मिथ्यात्वको प्राप्त नहीं होता उस समय उन आचार्यों के मतानुसार उसके अनन्तानुवन्धीके उदयके विना भी सास्वादन गुणस्थानकी प्राप्ति हो जायगी, यदि ऐसा मान लिया. जाय तो इसमें क्या आपत्ति है ? समाधान-यह मानना ठीक नहीं, क्यो कि ऐसा मानने पर उसके छह प्रकृतिक, सात प्रकृतिक, आठ प्रकृतिक और नौ प्रकृतिक ये चार उदयस्थान प्राप्त होते हैं। पर आगममे ऐसा वतलाया नहीं, और वे आचार्य भी ऐसा मानते नहीं। इससे समर्थन नहीं होता, क्योंकि वहाँ सास्वादन गुणस्थानमें २१ में २५ का ही संक्रमण बतलाया गया है। दिगम्वर परम्परामें एक घटखण्डागमकी और दूसरी कषायप्रामृतको ये दो परम्पराएँ मुख्य हैं। इनमेंसे पट्खण्डागमकी परम्पराके अनुसार उपशमश्रेणिसे च्युत हुआ जीव सास्वादन गुणस्थानको नहीं प्राप्त होता है। वीरसेन स्वामीने अपनी धवला टीकामें भगवान पुष्पदन्त भूतवलिके उपदेश का इसी रूपसे उल्लेख किया है। यथा___ 'भूदलिभयवतस्सुवएसेण उपसमसेढीदो श्रोदिण्णो ण सासत्त पडिवज्ञदि । -जीव० चू० पृ. ३३१ । किन्तु कषायप्रामृतकी परम्पराके अनुसार तो जो जीव उपशमश्रेणि पर चढ़ा है, वह उससे च्युत होकर सास्वादन गुणस्थानको भी प्राप्त हो सकता है। तथापि कषायप्रामृतकी चूर्णिमें अनन्तानुबन्धी उपशमना प्रकृति है इसका स्पष्टरूपसे निषेध किया है और साथ ही यह भी लिखा है कि
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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