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________________ ५० सप्ततिकाप्रकरण है। आशय यह है कि यद्यपि मनुष्य गतिमें नरकायुका बन्ध प्रथम गुणस्थान में, तिथंचायुका बन्ध दूसरे गुणस्थान तक और इसी प्रकार मनुष्यायुका वन्ध भी दूसरे गुणस्थान तक ही होता है। तथापि बन्ध करने के बाद ऐसे जीव संयम को तो धारण कर सकते हैं, किन्तु श्रेणोपर नही चढ़ सकते, इस लिये उपरतवन्धकी अपेक्षा इन तीन आयुओका सत्त्व अप्रमत्त गुणस्थान तक बतलाया है। तथा चौथे भंगका प्रारम्भके ग्यारह गुणस्थानो तक पाया १-यद्यपि यहा हमने तिर्यंचगतिके कोष्टक में उपरतरवन्धकी अपेक्षा नरकायु, तिर्यंचायु और मनुष्यायुका सत्त्व पाचवें गुणस्थान तक बतलाया है। इसी प्रकार मनुष्यगतिके कोष्ठ कमें उपरतवन्धकी अपेक्षा नरकायु, तिथंचायु और मनुष्यायुका सत्व सातवें गुणस्थान तक बतलाया है। पर इस विषय में अनेक मत पाये जाते हैं। देवेन्द्रसूरिने कर्मस्तव नामक दूसरे कर्म प्रन्थके मत्ताधिकारमे लिखा है कि दूपरे और तीसरे गुणस्थानके सिवा प्रथमादि ग्यारह गुणस्थानों में १४८ प्रकृतियोंकी सत्ता सम्भव है। तथा आगे चलकर इसी ग्रन्थमे यह भी लिखा है कि चौधे से सातवें गुणस्थान पर्यन्त चार गुणस्थानोंमें अनन्तानुवन्धी चतुष्ककी विसंयोजना और तीन दर्शनमोहनीयका क्षय हो जाने पर १४१ की सत्ता होती है। तथा अपूर्वकरण आदि चार गुणस्थानों में अनन्तानुवन्धी चतुष्क, नरकायु और तिर्यंचायु इन छह प्रकितियों के विना १४२ प्रकृतियों की सत्ता होती है। इससे दो मत फलित होते हैं। प्रथमके अनुसार तो उपरतवन्धकी अपेक्षा चारों आयुओंकी सत्ता ग्यारहवें गुणस्थान तक सम्भव है । तथा दूसरे के अनुसार उपरत बन्धकी अपेक्षा नरकायु, तिर्यंचायु और मनुष्यायुको सत्ता सातवें गुणस्थान तक पाई जाती है ।
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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