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________________ श्रयुकर्मके संवैध भंग ४९ और नरक- मनुष्यायुका सत्त्व (२) तिर्यचायुका बन्ध, मनुष्यायुका उदय और तिर्यच मनुष्यायुका सत्त्व (३) मनुष्यायुका बन्ध, मनुष्यायुका उदय और मनुष्य - मनुष्यायुका सत्त्व तथा ( ४ ) देवायुका बम्ध, मनुष्यायुका उदय और देव-मनुष्यायुका सत्त्व ये चार भंग होते हैं। इनमें से पहला भंग मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में होता है, क्योकि मिथ्यादृष्टि गुणस्थानको छोड़कर अन्यत्र नरकायुका बन्ध सम्भव नहीं । दूसरा भग मिथ्यादृष्टि और सास्वादन गुणस्थानमे होता है, क्योकि तिर्यचायुका वन्ध दूसरे गुणस्थान तक ही होता है। तीसरा भंग भी मिथ्यादृष्टि और सास्वादन गुणस्थानमें ही पाया जाता है, क्योकि मनुष्य जीव तिर्यंचायुके समान मनुष्यायुका बन्ध भी दूसरे गुणस्थान तक ही करते हैं । तथा चौथा भंग सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानको छोड़कर अप्रमत्तसंयत तक छह गुणस्थानोमें होता है, क्योकि मनुष्य गतिमें देवायुका वन्ध अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक पाया जाता है । तथा उपरतबन्धकालमै ( १ ) मनुष्यायुका उदय और नरक -मनुष्यायु का सत्त्व ( २ ) मनुष्यायुका उदय और तिर्यच मनुष्यायुका सव (३) मनुष्यायुका उदय और मनुष्य मनुष्यायुका सत्त्व तथा (४) मनुष्यायुका उदय और देव-मनुष्यायुका सत्त्व ये चार भ होते हैं । इनमे से प्रारम्भके तीन भग श्रप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक पाये जाते हैं, क्योकि जिस मनुष्य ने नरकायु, तिर्यचायुः या. मनुष्यायुका अपने योग्य स्थानमें बन्ध कर लिया है वह बन्ध करने के पश्चात् सयमको प्राप्त करके अप्रमत्तसंयत भी हो सकता H ४
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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