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________________ ४४ सप्ततिकाप्रकरण सास्वादन और अविरतसम्यग्दृष्टि इन तीन गुणस्थानोंमें होता है, क्योकि नारकियोके उक्त तीन गुणस्थानोंमें मनुष्यायुका बन्ध पाया जाता है । तथा उपरत वन्धकालमे ( १ ) नरकायुका उदय और नरक तिर्यचायुका सत्त्व तथा ( २ ) नरकायुका उदय और नरक - मनुष्यायुका सत्त्व ये दो भग होते हैं । नारकियोके ये दोनों भंग प्रारम्भके चार गुणस्थानो में सम्भव हैं, क्योंकि तिर्यचायुके बन्ध कालके पश्चात् नारकी जीव अविरतसम्यग्दृष्टि या सम्यग्मि ' थ्यादृष्टि हो सकता है, इसलिये तो पहला भंग प्रारम्भके चार गुणस्थान में सम्भव है । तथा अविरतसम्यग्दृष्टि नारकी जीवके भी मनुष्यायुका बन्ध होता है और वन्ध कालके पश्चात् ऐसा जीव सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानको भी प्राप्त हो सकता है इसलिये दूसरा भंग भी प्रारम्भके चार गुणस्थानो में सम्भव है । इस प्रकार नरकगतिमे आयुके अवन्ध, बन्ध और उपरतबन्ध की अपेक्षा कुल पाच भग हाते है । यहा इतना विशेष है कि नारकी जीव स्वभावसे ही नरकायु और देवायुका बन्ध नहीं करते हैं, क्योकि नारकी जीव मरकर नरक और देव पर्यायमे उत्पन्न नहीं होते हैं । ऐसा नियम है। कहा भी है 1 'देवा नारगा वा देवेसु नारगेसु वि न उववनंति ॥' अर्थात् देव और नारकी जीव देवो और नारकियों इन दोनोमें नहीं उत्पन्न होते है । आशय यह है कि जिस प्रकार तिर्यंचगति और मनुष्यगतिके जीव मरकर चारो गतियोंमें उत्पन्न
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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