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________________ अन्धपरिचय क्तुपाळना धर्मिक सत्कर्मोनुं विवरण रजु करायु होई तेनुं अपर नाम 'धर्माभ्युदय महाकाव्य छे एचो अभिप्राय ग्रन्थकार धरावे छे.' ६३. ग्रंथप्रयोजन 'आ ग्रंथतुं समुत्थान केवा कारणने लई थयु हतुं ते माटेना खतंत्र उल्लेखो कर्ताए रजु कर्या नथी. वस्तुपाळनो अनन्य धर्मप्रेम सुप्रसिद्ध छे. जगतनी व्यामोह भावनानुं भान तेने जीवननी शरुआतमा ज थयु हतुं. असार संसारनी प्रलोभनजनक अने वंचक भावनाओथी दूर रहेवा तेनुं हृदय हमेशां प्रयत्न करतुं. मनुष्यजन्मनु साचुं श्रेय जगकल्याण अने धर्माचरणमां ज छे एवो गुरुद्वारा मळेलो अमूल्य उपदेश तेनी रमेरगमां वहेतो हतो. सत्वशुद्ध भावनाओना प्रतापे तेओ सदाकाळ जीवनसाफल्यनो सर्वोस्कृष्ट मार्ग श्रवण, मनन, सत्समागम अने अनुशीलन द्वारा मेळववा प्रयत्न करता हता. एक वखत वस्तुपाळे पोताना कुलगुरु विजयसेनसूरिने जिज्ञासापूर्वक मनुष्यजन्मनी सार्थकतानुं साधन पूछ्यु हतुं.' गुरुये तेनो जवाव ढूंकमा ज आपतां धर्मनां गूढ तत्वो दान, शील, तप अने भावना( प्रभावना)मां समायेला होवाचं निदर्शन करतां भावनानी प्रधानता दर्शावी. परंतु वस्तुपाळना हृदयतुं समाधान थयु नहि. मंत्रीश्वरना हृदयमां छूपायेली आत्मकल्याणनी उत्कट भावना जोतां गुरु श्री विजयसेनसूरिये फरीथी तेज हकीकतने पूरता विवेचन सह वस्तुपाळने समजावतां कयु के, पुण्यकार्यो करनार मनुष्य स्वच्छ बुद्धि अने परोपकार द्वारा पोतानुं जीवन धन्य बनावे छे. कल्याणकारी उन्नत भावना द्वारा जगत्कल्याणकारी प्रभावना साधी शकाय छे. वधुमां ऋषिप्रणीत भावनानां प्रशस्य अंगो निरूपित करतां अष्टाह्निका महोत्सव, रथयात्रा अने तीर्थयात्रानो उल्लेख करी सर्व सुकृत कार्योमा ससंघ तीर्थयात्रा करवानु भारपूर्वक जणाव्यु. सार बाद तीर्थयात्राविधि, तेना नियमो, संघपतिए पाळवानां व्रतो अने धर्मकर्मोनुं सशाख वर्णन करतां संघपति बनी तीर्थयात्रा करवानो आदेश आप्यो. एटलं ज नहि पण पूर्वकाळमां जे धर्मद्रष्टा महापुरुषोए यात्राओ-अने धर्मकार्यो कर्या हता तेना यथास्थित विवेचनो कर्यां अने ते ज प्रमाणे धर्मशास्त्रक्रारोपे निर्दिष्ट करेल तीर्थयात्रा विधिसह ससंघयात्रा करी समाजमां नवीन आदर्श पेदा करवा वस्तुपाळने खास उपदेश आप्यो. आथी ग्रन्थप्रयोजननुं मुख्य कारण जनसमाजमां धर्माचरणनी शुद्ध भावना पेदा करवा माटेनुं ज हतुं जेने आ ज ग्रंथना केटलाक श्लोकोपी पुष्टि मळे छे.' आ ज ग्रन्थकारे वस्तुपाळनुं वंशवर्णन अने सुकृत कार्यांनी भव्य नोंघ रजु करतुं 'सुकृतकीर्तिकल्लोलिनी' नामक काव्य सर्वोत्कृष्ट भाषामां रच्युं छे, छतां फरीथी ते ज चरित्रने विशिष्ट कारण सिवाय कर्ता पुनः प्रतिपादित करे तेम मानी शकाय नहि. वळी 'धर्माभ्युदय काव्य', तेनु कथासाहित्य, अने तेमा समाएला धार्मिक झोक वगेरेनो विचार करतां आ ग्रन्थ धर्मप्रचारना शुभ उद्देशना कारणे अने वस्तुपाळनी तीर्थयात्रानुं ऐतिहासिक वर्णन करवा माटे रचवामां १ सापतिचरितमेतत् , कृतिनः कर्णावतंसतां नयत । श्रीवस्तुपालधर्माभ्युदयमहो महितमाहात्म्यम् ॥ ___ धर्माभ्युदयकाव्य. सर्ग १, श्लो. १५. २ कदाचिदेष मन्त्रीशः, कृतप्राभातिकक्रियः । गला पुरो गुरोस्तस्य, नवा विज्ञो व्यजिज्ञपत् ॥ ................................. तदन कारण किचिदभिरूपं निरूप्यताम् । कारणानां हि नानाख, कार्यमेदाय जायते ॥ धर्माभ्युदय. सर्ग १, लो. २६-२९ ३ एतत् सुवर्णरचितं, विश्वालंकरणमनणुगुणरत्नम् । संघाधीश्वरचरितं, एतदुदितं कुरुत हदि सन्तः ॥ धर्माभ्युदय. सर्ग १५, ४७. घ. का०५
SR No.010638
Book TitleDharmabhyudaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChaturvijay, Punyavijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1949
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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