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________________ धर्माभ्युदय महाकाव्य धर्माभ्युदय' ग्रंथ परमपूज्य मुनिवर श्री प्रवर्तक कांतिविजयजीना सुशिष्य-प्रशिष्य मुनि श्री चतुरविजयजी अने मुनि श्री पुण्यविजयजी जेवा विद्वान् साधु पुरुषो द्वारा संपादित थई 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला'ना एक मूल्यवान मणि तरीके प्रकाशमां मुकाय छे जे अभिनंदनाह छे. एमांथी वस्तुपाळना जीवन उपरांत केटलीक अन्य हकीकतो पण जाणवा जेवी मळी शके छे. वस्तुपाळनी अनेक सत्कार्योमा शत्रुजय अने रैवतकनी संघयात्रा ए महत्त्वर्नु धर्मकार्य हतुं. आ यात्रानी केटलीक विशिष्ट हकीकतो 'धर्माभ्युदय' पूरी पाडे छे. ६२. धर्माभ्युदय याने संघपतिचरित्र महाकाव्य __ आ महाकाव्य तेना अभिधान अनुसार संघाधिपतिओनां कर्तव्यने लगतां चरित्रो रजु करे छे जेथी समालना मानस उपर धर्माभ्युदयनी छाप पडे छे. तेनी वीजी विशिष्टता तेमांथी वस्तुपालचरित्रनी सहेज झांखी थवा उपरांत संघपति वस्तुपाळे संघसहित करेल शत्रुजयतीर्थनी महायात्रानुं व्यवस्थित वर्णन छे. आ आखोय ग्रन्थ शुद्ध संस्कृत भाषामां रचायो छे. तेना कुल पंदर सर्ग अने ५२०० श्लोक छे.' तेनी रचना महाकाव्यनी पद्धतिए करवामां आवी छे, तेनो पहेलो अने पंदरमो सर्ग इतिहासलक्षी छे. तेमां वस्तुपाळवंशवर्णन, वस्तुपाळना कुलगुरुओनो परिचय, वस्तुपाळे करेल संघयात्रानुं वर्णन अने वस्तुपाळना गुरु विजयसेन सूरिना नागेन्द्रगच्छमां थयेल पूर्वाचार्योनी रसिक हकीकत नोंधाई छे. वाकीना सर्गोमां पुण्यपवित्र महापुरुषोनां पौराणिक वर्णनो छे. आ ग्रन्थनो पहेलो अने पंदरमो सर्ग.विविध वृत्तोमां रचायो छे. तदुपरांत दरेक सर्गना अंतमा मूकायेला वस्तुपाळना प्रशंसात्मक श्लोकी पण जुदा जुदा छंदोमां छे, ज्यारे पौराणिक हकीकतो रजु करता वाकीना सर्गो मोटे भागे अनुष्टुपमा लखाया छे. आ बधा छंदोमां शार्दूलविक्रीडित, स्रग्धरा, इंद्रवज्रा, वसंततिलका अने मंदाक्रांता मुख्य छे. काव्यनी भाषा प्रासादिक अने सालंकार छे. आखो ग्रंथ अर्थगांभीर्य अने पदलालित्यनी झमक वाळो छे. दरेक सर्गना अंते वस्तुपाळनी प्रशंसा करता एक वे श्लोको मूकवामां आव्या छे जे वस्तुपाळनुं अप्रतिम गौरव प्रदर्शित करे छे. आ पद्धति 'सुकृतसंकीर्तन', 'नरनारायणानन्द' अने 'वसंतविलास'कारे पण अखत्यार करो छे. आ महाकाव्यना केटलाक श्लोको 'नरनारायणानन्द', 'उपदेशतरंगिणी' अने 'चतुर्विशतिप्रबंध'मा उद्धृत थया छे.' वस्तुपाळ जेवा कविवरे पोताना ज काव्यमां 'धर्माभ्युदयं ना केटलाक श्लोकोने स्थान आपी ते ग्रंथतुं महत्त्व अद्वितीय होवार्नु जाहेर कयें छे. आधी वस्तुपालना हृदयमां आ ग्रन्थ माटे अनन्य सद्भाव हतो एम पण जणाय छे. सत्पुरुष पोतानी श्लाघा खमुखे करे ए अयोग्य लेखाय ए न्याये वस्तुपाले गुरुनी उक्तिओ मूकी हशे एम साधारण अनुमान याय छे. वीजा कोई कविनी तेवी उक्तिओ नहि ग्रहण करतां गुरुना ज श्लोको केम दाखल कर्या ए प्रश्नना समर्थनमा एम कही शकाय के आ ग्रन्थोक्त गुरुदेवनी उक्तिओए वस्तुपाळना मानस उपर वधु प्रभाव पाड्यो हतो जेनो सचोट पुरावो 'धर्माभ्युदयकान्य' माथी उद्धृत करेल गुरुप्रोक्त उक्तिओ आपे छे. आ अन्यनुं मुख्यनाम संघपतिचरित्र' छे पण तेमां धर्मनो अभ्युदय साधनारां, धर्म उपर प्रकाश वेरनारा 1.१ प्रत्येकमन ग्रन्याग्रं विगणव्य विनिश्चितम् । द्वात्रिंशदक्षर लोकद्विपञ्चाशच्छतीमितम् ॥ . • २ जुओ 'नरनारायणानंदमहाकाव्य'ना सर्ग २,८,१० ना भंल लोको' तथा 'चतुर्विंशतिप्रबंध' 'भने 'उपदेशतरंगिनी'मा संग्रहायेला 'धर्माभ्युदयकाव्य'ना श्लोको.- . . . . . .
SR No.010638
Book TitleDharmabhyudaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChaturvijay, Punyavijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1949
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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