SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्माभ्युदय महाकाव्य तेमनो वात्सल्य भरेलो ममत्वभाव बहु ज सुखद अने सन्तोषकारक हतो. छतां म्हने भरखवा वळगेली तीन ज्ञानभूख, तेमना जेवा एकाकी, एकान्तमार्गी अने अल्पप्रभावी साधुपासे विशेष रहेवाथी, थोडे अंशे पण शान्त थाय एवं म्हने म्हारा थोडाक महिनाना अनुभवी न जणायु. एटले हुं, तेमनी ज अनुमति लई, अभ्यासार्थे संप्रदायना एक अन्य साधुसमुदायना म्होटा टोळा साथे भळ्यो, 'जीगर अने अमी' नामना बहु लोकप्रिय थएला पुस्तकना सर्जक भाई मोक्षाकर विश्ववन्धु ए टोळाना ते वखते एक आन्तरिक सूत्रधार हता. राधनपुरथी शत्रुजयतीर्थनी यात्रार्थे नीकळेला एक संघमां, ए टोळा साथे जोडाई, पालीताणानी यात्रा करवानो अने पछी त्यांथी भावनगर, खंभात विगेरे स्थानोमा थई, वडोदरामा चातुर्मास व्यतीत करवानो योग बन्यो. ए टोळामां थती सारी-नरसी विविध प्रवृत्तियोनां जे वर्णनो 'जीगर अने अमी'ना लेखके अंकित काँ छे तेमांना केटलांकने, एक तटस्थजन तरीके परंतु प्रत्यक्ष रीते, अवलोकवानो म्हने पण अकल्पित प्रसंग मळ्यो. केटलाक अरुचिकर अनुभवो पोताने पण थया अने तेथी म्हारं अपरिपक्क मन बहु खिन्न थयु. एथी कां तो ए समुदायनो सहवास छोडी अन्य कोई सत्संगी सहवास शोधवो अने को तो पछी कोई अन्य ज मार्गनो आश्रय लेवो एवी म्हारा मननी चल-विचल स्थिति थई गई. सद्भाग्ये चातुर्मास उता पछी, ए बहुरंगी टोळासाथे सुरत जवानो योग बन्यो अने त्यां पूज्यपाद. प्रवर्तक श्री कान्तिविजयजी महाराजना, संख्यामां स्वल्पत्व परंतु सुखभाव अने सुसाधुत्व गुणमा महत्त्व धरावनार मुनिमंडलना समागमनो अभीष्ट सुयोग प्राप्त थयो. प्रवर्तकजी महाराजनी सौजन्य अने सौम्यभाव भरेली मुखमुद्रा, तेम ज मधुर अने मृदुतामरेली वाणीये म्हारा उद्विग्न मनने उत्तम प्रकारनुं आश्वासन आप्यु. प्राचीन हस्तलिखित पुस्तकोना लेखन, संशोधन अने संरक्षणना कार्यमा सतत निमग्न रहेनार तेमना सुशिष्य मुनिवर श्री चतुरविजयजीना ज्ञानोपासक अने सहानुभूतिप्रदर्शक स्वभावे म्हने म्हारा भावी जीवनमादे एक लक्ष्य सुझाडयु. म्हारा श्रद्धेय सतीर्थ्य अने सौजन्यमूर्ति सुहृन्मुनिवर श्री पुण्यविजयजी, जेओते समये म्हारा जेवाज एक नवदीक्षित शैक्ष्य हता परंतु पोताना प्रगुरु तथा गुरुवर्यनी स्नेहस्निग्ध अने वात्सल्य-विशिष्ट शिक्षानी आसेवनानो सात्त्विक लाभ मेळववा सद्भागी बनी रह्या हता, तेमना नियाज स्नेहे अने निर्मल चरित्रे, म्हारा मानसिक चंक्रमणमा स्थैर्यनी संभावना उत्पन्न करी अने स्वीकृत जीवनना सदुपयोगनी रसवृत्ति जागृत करी. म्हें ए मुनिमंडलनी शान्तिदायक आश्रयछायानीचे रहेवानो निर्णय कर्यो. __ पूज्यपाद प्रवर्तकजी महाराजने पोताना शास्त्रीय स्वाध्याय उपरांत विविध प्रकारना अन्य वाचननो पण बहु शोख हतो. साहित्य, इतिहास, स्थापत्य जेवा सार्वजनिक विषयो तरफ तेमनुं वधारे आकर्षण रहे. हिंदी गुजरातीमां प्रकट थता ए विषयोनां पुस्तको सामयिको विगैरे तेमनी. पासे अवार-नवार आव्यां करता हतां जेथी म्हने पण एना वाचननो लाभ मळवा लाग्यो अने ए रीते म्हारी अभिरुचि ए विषयोना ज्ञान तरफ वधवा लागी. . चतुरविजयजी महाराज संस्कृत प्राकृतनुं ज्ञान घणुं सारं हतुं अने जैनधर्मशास्त्रोनो अभ्यास बहु विस्तृत हतो. तेमणे पाटणना जैन भंडारोने प्रकाशमा लाववा तथा तेमा रहेला हजारो जैन प्रन्योनो जीर्णोद्धार करवा-कराववा मादे खूब श्रम उठाव्यो हतो. अनेक लहियाओने, वर्षो सुधी कामे लगाडी, तेमणे पाटण विगेरेना भंडारोमा उपलब्ध थता अलभ्य-दुर्लभ्य एवा सेंकडो ग्रन्थोनी प्रतिलिपियो करावी हती; अने तेम करीने तेमणे, एक तो पोताना गुरुवर्यनी जन्मभूमि वढोदरामा अने
SR No.010638
Book TitleDharmabhyudaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChaturvijay, Punyavijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1949
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy