SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भक्तामर स्तोत्र। मंदारसुन्दरनमेरुसुपारिजात, ... सन्तानकादिकुसुमोत्कर वृष्टि रहा। गंधोदबिंदुशुभमंदमरुत्प्रपाता, . दिव्या दिवः पततिते वचसा ततिा ॥३३॥ मंदार एक जाति का कल्पवृक्ष । सुन्दर=मनोहर । नमेरू, पारिजात, और संतानक-ये सभी कल्पवृक्ष हैं । कुसुम = फूल । उत्कर समूह । दृष्टिबारस उद्घा- शुम । गन्धोद गन्धोदक । विन्दु =बूंद । शुम- उत्तम । मन्द -आहिसता चलने वाली । मरुत् =वायु । प्रपाता -पड़ी। दिव्या आकाश.को दिव, आकाश पतति : गिरती है। ने तुम्हारी । परसांघाणीयों की । तति समूह ॥ .. . : ... . अन्वयार्थ-हे.प्रभो गन्धोदक की:दों से पवित्रं मंदमंद पवन करके गिराई हुई मन्दार, मनोहर नमेश श्रेष्ठ पारिजात और संतानक आदि कल्पवृक्षों के पुष्प समूह को जो दिव्यदृष्टि आकाश से गिरती है सो आपके वचनों की पंक्ति खिरती है। . : . भावार्थ-यहां माचार्य ने भगवान को दिव्य प्राणी को दिव्यं पुष्पों की 'उपमा दी है कि हे जिनेश! आप के कल्याणक के समय जो देवता गंधोदक और पुष्पों की दृष्टि करते हैं सो मानो मापके वचनों की पक्ति ही खिरती है। मंद पवन गंधोदक इष्ट। ... विविध कल्पतरु पुहप सवृष्ट ॥ देव करें विकसत दल सार। मानो द्विज पंकति अवतार ॥३३॥
SR No.010634
Book TitleBhaktamar Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Jaini
PublisherDigambar Jain Dharm Pustakalay
Publication Year1912
Total Pages53
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy