SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . भक्तामर स्तोत्र। गंभीरतारवपूरितदिग्विभाग, स्त्रैलोक्यलोकशुभसंगमभूतिदक्षः। सद्धर्मराजजयघोषणघोषकः सन्खें, .. .. . दुन्दुभिध्वनति ते यशसः प्रवादी ॥३२॥ गम्भीर गहुरा । तार-ऊंचा । रव-शब्द । रित पूर्ण करना। ठिविभाग दिशायें । त्रैलोक्य = त्रिलोकी । लोक = जन । शुम भला । संगम = प्राप्ति' .. भूति विभूति दक्षः चतुर । सत् = श्रेष्वा धर्मराज = धर्म का राज । जयघोषण :-जयकारशब्द । घोषकः = बजाने वाला । सन् =है। सभाकाश | दुन्दुमिन बाजाअवनति = बजता है। ते तुम्हारे । यश-कीर्ति। प्रयादी कहने वाला। अन्वयार्थ गाम्भीर और ऊँचे शब्द से पूर (पूर्ण दिये हैं दिशामों के विभाग : जिसने और त्रिलोकी के रहने वाले जीवों को शुम ऐश्वर्य देने में चतुर तथा उत्तम धर्म का जो राज्य उसके जयकार शब्द का उच्चारण करने वाला जो आकाश में " दुंदुभी (पीजा) बजता है वह आपके यशका कथन करणे वाला है। ...। ..भावार्थ-जिनेन्द्र के जी अष्ट प्रतिहार्य में भाकाश में घाजा बजता है तो आचार्य कहते हैं कि सो बाजा मानो दश दिशों को व्याप्त होकर यह बताता है कि है.. जीवो अब तुम को इस संसार के दुखों को दूर करने वाली सुख संपविभूति मिलेगी और मोक्ष मार्ग के चलाने के लिये धर्म का राज प्रवगा दुन्दुभि शब्द गहर गम्भीर। चहुँ 'दिंश होय तुम्हारे धीर॥ "त्रिभुवन जन शिव संगम करें। मानो जय जय रख उच्चरे ॥ ३३॥ - -
SR No.010634
Book TitleBhaktamar Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Jaini
PublisherDigambar Jain Dharm Pustakalay
Publication Year1912
Total Pages53
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy