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________________ भक्तामर स्तोत्र। २५ त्वामामनंति मुनयः परमं पुमांस, मादित्यवर्णममलं तमसः पुरस्तात्।। त्वामेव सम्मगुपलभ्य जयन्ति मृत्यु, नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र पंथा॥२३॥ स्वां तुझे। आमनन्ति = मानते हैं। मुनि - मुनि। परम-प्रकृष्ट शक्ति वाले । पुमान् = पुरुष। आदित्य -सूर्य । वर्ण =रंम। अमल शुद्ध । तमलाअन्धेरै से । पुरस्तात =आगे । त्वां तुझे । एवंही । सम्यक् = अच्छी भांति उपलभ्यम्मालूम करके । जयन्ति जीतते हैं । मृत्यु मौन। न-नहीं । अन्यादूसरा। शिव कल्याण रूप । शिवपद -मुक्ति । मुनीन्द्र = मुनीश्वर । पंथारास्ता । अन्वयार्य-हे मुनीन्द्र मुनि तुझे परम पुरुष अन्धेरे के आगे सूर्य के तुल्य 'प्रभाव पाले शुद्ध मानते हैं और मनुष्य आपकी भली प्रकार जानकर मृत्यु को जीतते हैं और मुक्ति जाने के लिये और कोई दूसरा रास्ता नहीं है। भावार्थ-हे सुनीन्द्र मुनिजन आप को महान् पुरुष कर्म रूपी अंधेरे के 'मांगे सूर्य समान शुद्ध वरण मानते हैं और आपकी मले प्रकार जान कर मृत्यु को जीतते हैं अर्थात् सिद्ध पद को प्राप्त होते हैं क्योंकि सिवाय मापक मुक्ति जाने का और कोई दूसरा रास्ता नहीं है ॥ २३ ॥ ' पुराण हो पुमान हो पुनीत पुण्यवान् हो । ..कहें मुनीश अन्धकार नाश को सुभान हो । महन्त तोहि जान के न होय वश काल के । ॥ १ न और मोक्ष मोक्ष पन्थ देव तोहि टालके ॥२३॥ २३--पुराण -पुराणा । पुमान -पुरुष। भामु बसूर्य ।।
SR No.010634
Book TitleBhaktamar Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Jaini
PublisherDigambar Jain Dharm Pustakalay
Publication Year1912
Total Pages53
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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