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________________ २४ भक्तामर स्तोत्र । 1 स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्, नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता सर्वा दिशो दधति भानि सहस्ररश्मि, प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशुजालम् |२२| स्त्री = औरत | शत= सौ (१००) । शतशः = सैंकड़ों । जनयन्ति = पैदा करती हैं। पुत्रान् = बच्चों को। न नहीं । अन्या = दूसरी । सुत = पुत्र । त्वदुपम= तेरे समान । जननी -माता । प्रसूता पैदा करती । सर्वा = लभी । दिशा = दिशा । 1 t S धति = धारण करती हैं। भानि - तारावों को । सहस्त्ररश्मि = सूर्य । प्राची -= पूर्व दिशा । एव = ही । दिक् = दिशा । जनयति = पैदा करती है । स्फरतु प्रकाशमान अंशु = किरणें | जाल = समूह | अन्वयार्थ – हे भगवन् सैंकड़ों स्त्रिये सैंकड़ों पुत्रों को जनती हैं परन्तु दूसरी माता ने तुम्हारे समान पत्र पैदा नहीं किया। सभी दिशायें तारों को धारण करती हैं । लेकिन प्रकाशमान होरही है किरणें जिसकी ऐसे सूर्य को तो पूर्वदिशा ही पैदा करती है ॥ भावार्थ- हे भगवन् जैसे तारों को तो हरएक दिशा धारण करती हैं परन्तु सूर्य्यं को तो पूर्व दिशा ही उदय करती है इसी प्रकार अनेक माता अनेक पुत्र जन्मती हैं परन्तु तुम्हारे समान पुत्र सिवाय आपकी माता के किसी दूसरी माता के उत्पन्न नहीं होता || अनेक पुत्रवन्तनी नितम्वनी सुपूत हैं। न तो समान पुत्र और मात ते प्रसूत हैं ॥ दिशा धरन्ततारका अनेक कोटिको गिने । दिनेश तेजवन्त एक पूर्वही दिशा जने ॥२२॥ २२ – नितंबनी = स्त्री । प्रसूत - पैदा करना । धरंत - धरती है। तारका सारे । हिमेशा सर्य MX
SR No.010634
Book TitleBhaktamar Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Jaini
PublisherDigambar Jain Dharm Pustakalay
Publication Year1912
Total Pages53
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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