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________________ ७३ मेरा कतिं - राज्याभिषेक किया जायेगा । उससमय तीन भुवनमें ऐसी कोई भी वस्तु न रहेगी. जो मुझे प्राप्त नहीं होगी ।" इस प्रकारसे यह राजपुत्र आदि अवस्थाओं में वर्तता हुआ जीव बहुतसे निरर्थक विकल्पोंसे जो एकके बाद एक उटा करते हैं, अपने आपको व्याकुल किया करता है - रौद्रध्यान करता है, और उससे सधन कर्मोंका बंध करके महान् नरकोंमें पडता है । इन राजकुमार आदि अवस्थाओं में यद्यपि यह जीव अनेक प्रकारसे खेदित होता है, परन्तु तो भी पूर्वोपार्जित पुण्यके अभाव से अपने हृदयकी तापको छोड़कर और किसी भी अर्थकी सिद्धि नहीं करता है। इससे यह समझना चाहिये कि यह जीव राजकुमारादि अवस्थाओंमें यद्यपि अतिशय विशालचित्त होनेके कारण छोटी वस्तुओंपर अपने मनोरथको नहीं जाने देता है तथा बहुत घनकी चाह रहने के कारण अपनी बुद्धिसे भी बड़ा उदार रहता है, तो भी जिन्होंने शान्तिरूपी अमृत के आस्वादन करनेका सुख अनुभव किया है, पंचेन्द्रियके विपयका दुखदाई परिणाम जिन्हें ज्ञात है और सिद्धिरूपी नवीन स्त्री से सम्बन्ध करने का जिन्होंने निश्चयकर लिया है, ऐसे ज्ञानवान् और श्रेष्ठ साधुओंको वह क्षुद्र भिखारीके समान ही प्रतिभासितहोता है, फिर अन्य अवस्थाओंकी तो कथा ही क्या है ? अर्थात् जब राजकुमारादि ऊंची अवस्थाओं में भी इस जीवको वे भिखारी समझते हैं, तत्र और साधारण नीची अवस्थाचर्म तो समझहीगे । आगे इसी बातको स्पष्ट करके दिखलाते हैं: जत्रतत्त्वमार्गका ( सचेधर्मका ) नहीं जाननेवाला यह रंक जीव ब्राह्मण, वैश्य, अहीर, और अंत्यज (नीच) आदि जातियोंमें उत्पन्न होना है, तब इसे यदि कभी दो तीन छोटे २ गांवोंका ही स्वामीपन मिल जाता हैं, तो अपने तुच्छ अभिप्रायोंके कारण यह समझ
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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