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________________ ७२ उत्पन्न करेंगे ( कि, हाय हमारे ऐसे पुत्र न हुए), सारे कुटुम्बी तथा प्यारे लोगोंकी नाना प्रकारकी प्रकृतियोंको प्रसन्न करेंगे, सबके मनकी करेंगे और जिन्हें देखकर मेरे ही प्रतिविम्वकी शंका उत्पन्न होगी ( कि, इनका रूप ठीक पिताके समान है), और तत्र मैं सर्व मनोरथ पूर्ण हो जानेसे और सारे विघ्नोंका नाश हो जानेसे अपनी इच्छानुसार अनंत काल तक विचरण करूंगा ।" यह सब उस भीखके कदनको बहुत दिनोंके लिये रख छोड़ने के मनोरथ तुल्य समझना चाहिये । आगे यह जीव फिर विचार करता है कि :- " मेरे इस प्रकारके वैभवकी बढ़तीको यदि कभी दूसरे राजा लोग सुन लेंगे, तो वे ईर्पासे सबके सत्र एकत्र होकर मेरे देशपर चढ़ आयेंगे, और उपद्रव मचावेंगे । यह देख मैं शीघ्र ही चतुरंगिनी सेनाके साथ उनपर टूट पहूंगा । और वे भी अपनी सेनाके घमंड से मेरे साथ संग्राम करने लगेंगे ! फिर क्या है, बहुत समय तक दोनों का घोर युद्ध होगा । उस समय यदि वे परस्पर सटे हुए होनेसे तथा बहुतसे साधन पाजानेसे मुझपर जरा भी आक्रमण करेंगे, तो मेरा क्रोध एकाएक बढ़ जायगा और उससे रणका उत्साह इतना प्रवल हो जायगा कि, उनको मैं एक एक करके सेनासहित चूर्ण कर डालूंगा। मेरे बाँधे हुए उन सब योद्धाओंका पातालमें प्रवेश करनेपर भी मोक्ष नहीं हो सकेगा । अर्थात् वे किसी तरहसे नहीं बच सकेंगे।" दरिद्री विना समयके ही जो लड़ाई करनेका विचार करता है, यह प्रसंग उसीके समान समझना चाहिये । फिर विचार करता है कि, " इसके पश्चात् पृथ्वीके समस्त राजाओंका जीतनेवाला होनेके कारण मैं चक्रवर्ती पदको प्राप्त करूंगा
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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