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________________ उस भिखारीके शरीरमें उन्माद आदि रोग वतलाये गये हैं, सो इस जीवके सम्बन्धमें महामोह आदि समझना चाहिये। जैसे निष्पुण्यकको उन्माद रोग था और उससे वह सब प्रकारके अकार्यों में प्रवृत्ति करता था, उसी प्रकारसे इस जीवके मोह और मिथ्यात्वरूपी उन्माद है और इससे यह भी अकार्य करनेमें ही लगा रहता है। ज्वरके समान इस जीवके राग समझना चाहिये। क्योंकि जिस प्रकार ज्वरसे सारे अंगमें वड़ी भारी तपन होती है, उसी प्रकारसे रागसे भी सर्वांग तप्त होते हैं। शूलके समान द्वेप समझना चाहिये । क्योंकि जिस प्रकार शूलसे हृदयमें गाढ़ी वेदना होती है, उसी प्रकारसे द्वेपसे भी होती है। खुजलीके समान काम समझना चाहिये। क्योंकि उसमें भी विपयाभिलापितारूपी तीन खुजली चलती है। गलित कुष्ट (वहनेवाले कोढ़के) समान भय शोक और अरतिसे उत्पन्न होनेवाली दीनता समझनी चाहिये । क्यों कि जिस तरह कोढ़से लोगोंको ग्लानि होती है, तथा दूसरोंके चित्तमें उद्वेग होता है, उसी प्रकार दीनतासे भी दूसरोंको घृणा और उद्वेग होता है। नेत्र रोगके समान अज्ञानको समझना चाहिये । क्यों कि जिस प्रकार आंखोंकी बीमारीसे विवेकदृष्टि अर्थात् देखनेकी शक्ति नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार अज्ञानसे विवेकदृष्टिका अर्थात् ज्ञानका घात हो जाता है। जलोदर रोगके समान प्रमादको समझना चाहिये। क्यों कि जिस तरह जलोदरमें अच्छे कामोंके करनेका उत्साह नष्ट हो जाता है, उसी तरह प्रमादके वशमें पड़नेसे इस जीवका शुभ कार्योंके करनेमें उत्साह नहीं रहता है। इस प्रकारसे यह जीव मिथ्यात्व, राग, द्वेप, काम, दीनता, अज्ञान, और प्रमाद आदि भावरोगोंसे विहल होकर जरा भी सचेत नहीं
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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