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________________ और कदाचित् यह जीव देवोंकी पर्याय पाता है, तो उसमें भी नाना प्रकारकी मानसिक वेदनाओंसे ग्रसित रहता है । इन्द्रादि अधिकारियोंकी आज्ञाका परवश होकर पालन करता है, दूसरोंका वैभव देखकर खेद करता है, पूर्वभवके किये हुए प्रमादोंके स्मरण होनेसे दुखी होता है अर्थात् यह सोच कर चिन्ता करता है, कि, "हाय मैंने पूर्वजन्ममें तपस्या आदिमें इतनी कमी कर दी, जिससे कि इन्द्रादिकोंकी ऊंची विभूति नहीं मिली, और इसलिये इनका आज्ञाकारी होना पड़ा," जो अपने अधीन नहीं हैं, ऐसी दूसरोंकी सुंदरदेवांगनाओंकी डाहसे मन ही मन जलता है और उनका संयोग कैसे हो, इस प्रकारकी चिन्ता उसे कांटे सरीखी चुभती है, बड़ी ऋद्धिवाले देव निन्दा करते हैं, अपना च्यवनसमय निकट देखकर अर्थात् अपनी मौत नजदीक जानकर विलाप करता है, और मृत्यु, को बहुत ही निकट आई देखकर आक्रन्दन करता है अर्थात् खूब रोता है। अंतमें आयु पूर्ण करके सब प्रकारकी अपवित्रताके स्थानभूत गर्भरूपी कर्दममें (कीचडमें ) पड़ता है। ऐसी स्थितिमें जो भिखारीका वर्णन करते समय कहा गया है कि:-"सारे शरीरमें बड़ी २ चोटोंके लगनेसे उसका आत्मा अतिशय दुखी हो रहा है और 'हा माता मेरी रक्षा करो' इस प्रकार दीनतासे चिल्लाता हुआ वह व्याकुल हो रहा है।" सो भी इस जीवके विषयमें बराबर समझना चाहिये। (क्योंकि नरकादि दुर्गतियोंमें यह भी नाना प्रकारके दुःखोंकी चोटें सहता हैं, रोता चिल्लाता है, और दुःखोंसे वचनेका कुछ उपाय न पाकर व्याकुल रहता है।) इन सारे अनर्थोंके कारण इस जीवके नाना प्रकारके बुरे विकल्प? उनके उत्पन्न करनेवाले कुदर्शन ग्रन्थ (अन्यधर्मीय ग्रन्थ), और उनके बनानेवाले कुगुरु हैं। शय दुला चिल्लाता हुआ चाहिये । (कहता है, रोता र
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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