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________________ प्रयल कलकल करनेवाले, मन्दिनेंपर मोहित होनेवाले, दुर्दान्त और बानाल बालकों के समूह कहे हैं, उन्हें यहां त्रौद्ध आदि मर्तीपर विना पूर्वापर (आगे पीछे ) विचार किये मोहित होनेवाले भोले लोग समझना नाहिये। पूात. नगरने जो ऊंचा परकोटा कहा है, उसे संसाररूप नगरम शोधादि कयाय समझना चाहिये । क्योंकि जिस प्रकार नगरके कोटले दूसरे शत्रुओका चित्त भयभीत रहता है, उसी प्रकारसे इन कपायोस सारे विवेकी महापुरुषों के चित्त उद्वेगल्प रहते हैं। चारों ओरसे हुए जो बड़ी भारी खाई कही है, वह यहां रागद्वेपरूपी तृष्णा मनहानी चाहिये । क्योंकि जिस प्रकार खाई महामोहसे' अर्थात् युद्ध करनेकी प्रबल इच्छामे लांघी जा सकती है, और नगरको चारों ओरसे धेरे रहती है, उसी प्रकारले तृष्णा भी महामोहलंख्य हैं अर्थात् महामोह ही उसे जीत सकता है-महामोह ही उससे अधिक बलवान है, दसा कोई नहीं है और संसारको सब ओरसे बड़े रहती है। नगरमें जो बने २ विस्तीर्ण सरोवर बतलाये हैं, उन्हें संसरामें इन्द्रियोंके शब्दादि विषय समझना चाहिये । क्योंकि जिस प्रकार महासरोवर जनसे कठिनतापूर्वक भरे जाते हैं और बहुत गहरे रहते हैं, उसी प्रकारो इन्द्रियोंके विषय भी विषयरूपी जलसे कठिनाईसे भरे जाते हैं और बहुत ही गहरे होते हैं, अर्थात् उनकी थाह नहीं मिलती है कि कितने हैं। नगरमें जो कोटके समीप गहरे अंधकुए हैं, उन्हें संसार नगरनें प्यारीका वियोग, अनिष्टोंका संयोग, कुटुम्बियोंका मरण, धनका छीना जाना आदि नानाप्रकारके भाव समझना चाहिये। क्योंकि अंधकृप जैसे पानीकी प्रबल तरंगोंसे चंचल रहते हैं, और १ "नियुचभूरक्षयाटी मोही मृच्छी च कदमलन् ।" इति ईमः ।
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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