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________________ ५४ आचारणोंको सार्थक मान रहा हो, तो उसे कृपा करके रोक देवें । तदनुसार मैं भी अपनी प्रवृत्तिकी सार्थकता निवेदन करता हूं: हे भव्यो ! इस उपमितिभवप्रपंचाकथाके प्रारंभ करनेवालेने (मैंने) पहले दृष्टान्तके द्वारा कथा कही है और उसकी तुमने धारण की है अर्थात् पढ़ी है वा सुनी है । इसलिये अब मेरे अनुरोधसे अन्य सत्र विक्षेपको (खेड़ों को ?) छोड़कर उसका दान्तिक अभिप्राय जिसे मैं आगे कहता हूं, सुनोः - पहले दृष्टान्तमें जो अदृष्टमूलपर्यन्त नामका नगर अनेक प्राणियोंसे भरा हुआ और सदा स्थिर रहनेवाला कहा है, सो यह अनादि अनन्त अविच्छिन्नरूप और अनन्त जन्तुओं से भरा हुआ संसार है। इस संसार नगरमें जो नगरपनेकी कल्पना की गई है, वह ठीक है । उस नगरमें जो धवल गृहोंकी पंक्ति बतलाई है, सो यहां देवलोकादि समझना चाहिये । बाजारोंकी गलियां एक जन्मसे दूसरा जन्म लेनेरूप उत्तरोत्तर जन्मोंकी श्रेणी हैं। उनमें जो नाना प्रकारकी विक्रीकी चीजें बतलाई हैं, वे नाना प्रकारके सुख दुख हैं । और उन चीजों की कीमतके समान यहां बहुत प्रकारके पुण्य और पाप हैं। अर्थात् जिस प्रकारसे बाजारकी चीजोंको लोग जुदे २ दाम देकर पाते हैं, उसी प्रकारसे जीव मनुष्यभवादिरूप बाजारमेंसे सुख दुखरूप वस्तुएं अपने २ पुण्यपापरूप जुदी २ कीमत जितनी जिसके पास होती है, देकर पाते हैं । नगरमें जो विचित्र २ प्रकारके चित्रोंसे शोभित देवमंदिर कहे हैं, उन्हें यहांके सुगत ( बुद्धदेव ) कणभक्ष (वैशेषिक दर्शन के स्थापक, कणाद ), अक्षपाद ( न्यायदर्शनके प्रणेता, गौतम ), और कपिल ( सांख्यदर्शन के कर्त्ता ), आदिके रचे हुए कुमत समझना चाहिये। वहां पर जो आनन्दसे
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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