SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८९ कदन्नका त्याग करा दिया। फिर उसके ठीकरेको निर्मल जलसे साफ करके परमान्नसे भर दिया । उस दिन वड़ा भारी उत्सव किया गया और लोगोंके कहनेसे उस भिखारीका 'सपुण्यक' नाम पड़ गया। यह सब वृत्तान्त इस जीवके सम्बन्धमें जो कि गृहस्थावस्थामें वर्त्त रहा हैं और जिमकी बुद्धि दीक्षा लेनेके लिये दोलायमान है, इस प्रकारसे योजित होता है:__ जब यह प्रशमसुखके आस्वादका जाननेवाला जीव संसारके प्रपंचोंसे विरक्त हो जाता है परन्तु किसी एक अवलम्बनके कारण घरमें बना रहता है, तब उत्कृष्ट प्रकारके तप और नियमोंका अभ्यास करता है । सो इसको भिखारीके परमान्नभक्षणके समान समझना चाहिये और उस अवस्थामें जो यह अनादरपूर्वक कभी २ धनका : उपार्जन करता है तथा कामसेवन करता है, सो उसे लीलाक्श कुभोजनके चखनेके समान समझना चाहिये। ___ गृहस्थावस्थामें जब स्त्री वुरा काम करती है, पुत्र अविनय करता है, लड़की विनयका उल्लंघन करती है, बहिन विपरीत आचरण करती है, · धर्ममार्गमें धनन्यय करनेसे भाई प्रसन्न नही होता है, मातापिता लोगोंके साम्हने रोते हैं कि 'यह गृहस्थके काम कानोंकी ओर ध्यान नहीं देता है। वन्धुवर्ग वुरा आचरण करते हैं, परिवारके लोग वा नोकर चाकर आज्ञासे उलटे चलते हैं, बहुत कुछ लालन पालन करनेपर भी देह दुष्ट मनुप्यके समान रोगादि विकार उत्पन्न करती हैं, और धन विज़लीके विलासके समान विना 'समयके ही विलयमान हो जाता है, तब प्रशमसुखरूप परमान्नसे संतृत हुए जीवके मनमें यह सम्पूर्ण संसार कुभोजनके समान जैसाका तैसा भास जाता है। उस समय इसे संसारसे
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy