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________________ १८८ परन्तु मेरा शरीर कोमल शय्या (सेज) और सुन्दर आहारादिसे लालन पालन किया हुआ है और चित्त भी इसी प्रकारके संस्कारोंसे संस्कृत है, इस लिये मेरी सामर्थ्य नहीं है कि, मैं इस वड़े भारी भारको उठां सकं। और यह अवश्य है कि, जब तक सब प्रकारके परिग्रहोंका त्याग करके-सारे दंदफन्दोंसे अलग होकर जैनेश्वरी दीक्षा नहीं धारण की जायगी, तब तक सम्पूर्ण प्रशम सुखकी अथवा सारे क्लेशोंके अभावस्वरूप मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो सकेगी । इससे मैं अब क्या करूं? यह कुछ भी समझमें नहीं आता है। इस प्रकारसे यह जीव अपने कर्तव्यका निश्चय न कर सकनेके कारण अपने हदयको सन्देहरूपी हिंडोलेमें झुलाता हुआ कितना ही समय विचार ही विचारमें पूरा कर देता है। आगे कथामें कहा गया है कि, एक दिन उस भिखारीने महाकल्याणक भोजनसे पेट भर लेनेके पश्चात् लीलाके वश थोड़ासाठीकरेका कुभोजन चख लिया। उस दिन तृप्ति हो चुकनेके बाद कुभोजन करनेके कारण उसके कुथितत्व ( सड़कर जीव पड़ जाना) विरसत्व (चलितरस हो जाना वा स्वाद बिगड़ जाना) और निन्द्यत्व आदि जैसेके तैसे गुण भिक्षुकके चित्तमें भास गये और इससे उस कुभोजनसे उसको घृणा हो गई। अतएव अब चाहे जो हो, इस कुभोजनका. मुझे त्याग कर ही देना चाहिये, ऐसा अपने मनमें निश्चय करके उसने सद्बुद्धिसे कहा । सदबुद्धिने कहा कि, " इसे धर्मवोधकरके साथ भलीभांति सलाह करके वा पर्यालोचना करके छोड़ना चाहिये । " .तदनुसार भिखारीने धर्मवोधकरके निकट जाकर ; अपना अभिप्राय प्रगट किया और उसने भी विचार करके उस १ इसका सम्बन्ध ४४ पृष्टके तीसरे पारिग्राफके साथ है।
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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