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________________ १७३ शिथिल होकर काल व्यतीत करता था । और इसलिये उस अपथ्यभोनीके रोग जड़मे नष्ट नहीं होते थे। केवल बीच २ में तद्दयाकी प्रेरणासे जो वह परमान्नादिका थोड़ा बहुत सेवन कर लेता था, उसीसे वे रोग कुछ जीर्णअवस्थाको प्राप्त हो जाते थे-हलके पड़ जाते थे। परन्तु जब कभी आपेको भूल कर वह अपथ्यका अतिशय सेवन कर डालता था, तब वे रोग अपने विकारोंको प्रगट करते हुए शुल दाह मूर्छा अरुचि उत्पन्न करके उसे पीड़ित करते थे।" . __यहां जीवके विषयमें भी उपर्युक्त मारा कयन ठीक २ घटित होता है । चातुर्मासादिके (चौमासेके) किसी अवसरपर दयालु गुरु महाराज इस जीवके आगे अतिशय उत्कृष्ट व्रतोंके धारण करनेके लिये अणुव्रतोंकी विधिका सविस्तर वर्णन करते हैं। परन्तु उस समय तीन चारित्रमोहिनीय कर्मके कारण जिसका पराक्रम मन्द हो गया है, ऐसा यह जीवं वैराग्यकी तीव्रतासे कोई २ व्रत ग्रहण करता है । सो यह सब बहुत सी दी हुई खीरमें से थोडीसी भक्षण करनेके समान समझना चाहिये । और फिर कई एक व्रतोंको दयालु गुरुमहाराजके अनुरोधसे चित्तसे न चाहनेपर भी ले लेता है, सो इमे बचे हुए परमान्नको अपने ठीकरेके भोजनमें डाल लेनेके समान समझना चाहिये । मन्द वैराग्यसे अंगीकार किये हुए भी व्रत अपने सम्बन्धसे इस भव और परभवमें विषय धनादिकोंको बढ़ाते हैं, सो यह परमान्नके सम्बन्धसे ठोकरेके भोजनके बढ़नेके तुल्य है । वे धन विपयादि पदार्थ जो कि उन व्रत नियमादिकोंके प्रभावसे प्राप्त होते हैं, जब निरन्तर भोगे जानेपर भी कभी निःशेप नहीं होते हैं। (क्योंकि उनके उत्पन्न होनेके व्रतनियमादि दृढ़ कारण हैं) तत्र
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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