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________________ १७२ और कथामें कहा है कि, "वह निप्पुण्यक मोहके वशीभूत होकर अपने ठीकरके भोजनको तो बहुत खाता है । परन्तु तद्दयाके दिये हुए परमान्नको (खीरको) उपदंशके' समान थोड़ा २ चखता है।" उसी प्रकारसे यह जीव भी महा मोहसे ग्रसित होकर धनकमानेकी और विषय भोगादिकोंकी बहुत चाहना करता है, परन्तु . गुरुकी दयासे पाये हुए व्रत नियमादिकोंकी कभी २ वीच २ में अनादरके साथ पालना करता है अथवा करता ही नहीं है । और जैसे वह भिखारी तद्दयाकी प्रेरणासे उस अंजनको कभी २ आंखोंमें आंजता है, उसी प्रकारसे यह जीव भी सद्गुरुओंकी दयासे प्रेरित होकर उनके अनुरोधसे ही चलता है और ज्ञानका अभ्यास करता है-सो भी कभी २, सर्वदा नहीं । जैसे वह निप्पुण्यक तीर्थजलंको पीनेके लिये धर्मबोधकरके कहनेसे ही प्रवृत्त होता है, उसी प्रकारसे • यह जीव भी प्रमादके वशवर्ती होकर दयालु गुरुओंकी प्रेरणासे ही सम्यग्दर्शनको उत्तरोत्तर विशेषोंसे प्रकाशित करता है, अपने उत्साहसे नहीं। __ आगे कहा है कि, " तद्दया जो बहुतसा परमान्न देती थी, उसमेंसे वह भिखारी शीघ्रतासे थोड़ासा तो खा लेता था और वाकीको अनादरसे अपने भीखके ठीकरेमें पड़ा रहने देता था। और उसके सम्बन्धसे वह भोजन इतना बढ़ता जाता था कि, भिखारीके रातदिन खानेपर भी समाप्त नहीं होता था। इससे उसे संतोप होता था, प्रसन्नता होती थी, परन्तु वह यह नहीं जानता था कि, किसके माहात्म्यसे इसकी वृद्धि होती जाती है। केवल उसमें अतिशय लवलीन रहकर उन तीनों औषधियोंके सेवनमें १ शराब पीनेके पश्चात् जो चाट खाई जाती है, उसे उपदंश कहते हैं। थाहाता था, प्रसन्नता भी समाप्त नहीं
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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