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________________ दया, दान, क्षमा आदि धर्मके अंगोंपर प्रतिष्ठा की जाती है, और जिसमें धर्मको धारण करने योग्य बतलानेका अभिप्राय रहता है। यह चित्तको शुद्ध करनेवाली होती है, इस हेतुसे पुण्यका वध करनेवाली और कर्मोंकी निर्जरा करनेवाली होती है। इसी लिये इसे स्वर्ग और मोक्षकी कारण-वतलाई है (पुण्य बंधसे स्वर्ग और कर्मोंकी निर्जरासे मोक्ष होता है)। और संकीर्णकथा उसे कहते हैं, जो धर्म अर्थ और कामके साथनोंके उपाय बतलानेमें तत्पर रहती है और नानाप्रकारके उत्तम रसोंके अभिप्राय प्रगट करती है। यह कथा चित्तमें विचित्र २ प्रकारके विचार उत्पन्न करती है, इसलिये अनेक प्रकारके फल देनेवाली और मनुष्यको विद्वान् बनानेमें एक प्रकारकी कारण है। ऊपर कही हुई चार प्रकारकी कथाओंके सुननेवाले 'श्रोता ' भी चार तरहके होते हैं। उनके लक्षण हम संक्षेपमें कहते हैं, सो सुनो: जो पुरुष माया, शोक, भय, क्रोध, लोभ, मोह तथा मदसंयुक्त होकर अर्थकथा सुननेकी इच्छा करते हैं, वे तामस प्रकृतिवाले अधम श्रोता हैं । जो रागलिप्त और विवेकरहित होकर कामकथा सुननेकी बांछा करते हैं, वे राजस प्रकृतिवाले मध्यम श्रोता हैं। जो मोक्षकी आकांक्षामें एकतान एकमन होकर केवल शुद्ध धर्मकथाके ही सुननेकी अभिलाषा करते हैं, वे सात्विक प्रकृतिवाले उत्तम श्रोता हैं और जो इहलोक तथा परलोक दोनोंकी अपेक्षा रखके धर्म, अर्थ, कामरूप संकीर्णकथा सुनना चाहते हैं, वे किंचित् सात्विक गुणवाले (राजस-तामससहित) वरमध्यम अर्थात् मध्यमोंमें भी श्रेष्ठ प्रकारके श्रोता हैं। जो जीव रजस् तमस् प्रकृतिवाले होते हैं, वे अर्थ और कामकथा, का निषेध करनेवाले धर्मके शासकोंका अर्थात् धर्मकथा कहनेवालोंका
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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