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________________ १२१ पुंज करके मिथ्यात्व पुंजमें वर्तमान रहता है, तत्र इसके ऊपर कहे हुए सारे विकल्प हुमा करते हैं। इसके पश्चात् उक्त प्रकारके विकल्प करनेवाले जीवके फिर मिथ्यात्वका विप फैलता है, जिसके वशसे यह मुनिप्रणीत दर्शनका पक्षपात शिथिल कर देता है, पदार्थोंके स्वरूपके जाननेकी इच्छा छोड़ देता है, सद्धर्ममें लवलीन रहनेवाले जीवोंका तिरस्कार करता है, विचारहीन ( अन्यधर्मी ) जनोंका सत्कार करता है, पहले जो थोडेसे अच्छे कार्य करता था, उनके करनेमें प्रमाद करता है, भद्र परिणामोंको छोड़ देता है, विपयोंमें अतिशय लवलीन हो जाता है, उनके (विषयोंके ) धनकंचन आदि साधनोंको तत्त्ववुद्धिसे देखता है अर्थात् समझता है कि, सुखप्राप्तिके वास्तविक कारण ये ही हैं, और ऐसा ही (विपयसम्बन्धी) उपदेश देनेवाले गुरुओंका आश्रय लेता है, उनके वचनोंको प्रतारणारूप (ठगाईरूप) नहीं किन्तु सच्चे हितकारी समझकर सुनता है, धर्मकी निन्दा करनेवाले वचन कहता है, धर्म गुरुओंके मर्मस्थानोंको (गुह्य बातोंको) उघाड़ता है, झूठा विवाद करके प्रतिकूल बना रहता है और इसलिये गुरुओंको द्वारा पदपदपर अपमानित होता है । उस समय ( अपमानित होने पर ) चिन्तवन करता है कि, उत्तम पद्धतिसे रचे हुए बहुतसे ग्रन्थ जिनके पास हैं, ऐसे ये गुरु मेरे जैसे पुरुपसे वादमें नहीं हटाये जा सकते हैं, इसलिये ये मुझे झूटे विकल्पोंसे ठगकर कपटकलासे अपना भक्ष्य बना लेंगे अर्थात् अपने पंजेमें फँसा लेंगे। अतएव मुझे दूरहीसे इन्हें छोड़ देना चाहिये, घर आनेसे रोक देना चाहिये, दिख पड़े तो भी इनसे बातचीत नहीं करना चाहिये और इनके नामका भी सहन नहीं करना चाहिये, अर्थात कोई इनका नाम लेवे, तो उसे दश गालियां
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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