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________________ १२० समझते हैं-दोनोंको वरावर समझते हैं। बड़ी भारी ऋद्धिके धारक देवोंमें और धनरहित गरीबोंमें विभागकल्पना नहीं करते हैंअर्थात् कुछ अन्तर नहीं समझते हैं। चक्रवर्ती और रंकमें अन्तर नहीं बतलाते हैं । परम ऐश्वर्यवान् दानीमें और कंजूस मनुप्यमें आदर और अनादरका वर्ताव नहीं करते हैं। उनके विचारमें बड़ा भारी ऐश्वर्य दरिद्रताके समान है, अमूल्य रत्नोंकी राशियां कटोर पत्थरों के ढेरके समान हैं, ताये हुए सोनेके कूट मिट्टीके देलोंके सदृश हैं, धान्यका संग्रह नमककी राशियोंके तुल्य हैं, चांदीका संचय धूलिके पुंज सरीखा है, चौपाये और कुप्य (सोने चांदीके सिवाय दूसरी धातुएं)आदि पदार्थ सारहीन कूडाकर्कटके तुल्य हैं और रतिके रूपको भी पराजित करनेवाली सुन्दर स्त्रियां काठके पुराने स्तंभों स. रीखी हैं। ऐसी दशामें वे जो सुन्दर उपदेश देनेमें प्रवर्त रहते हैं, इसका उन्हें दूसरोंकी भलाई करनेका जो न्यसन पड़ गया है, उसके सिवाय और कोई दूसरा कारण नहीं है । वे स्वार्थका (अपने आत्माके कल्याणका) सम्पादन भी वास्तवमें स्वाध्याय, ध्यान, तप तथा चारित्र आदि अन्य द्वारोंसे करते हैं। इससे सिद्ध है कि, वे सांसारिक स्वार्थ सम्पादनके लिये उपदेशादि कार्य नहीं करते हैं। और उनके हृदयमें लाम आदिकी सारी ही अभिलापाओंको अवकाश नहीं मिल सकता है। परन्तु यह अतिशय अंधवुद्धि जीव ये सब बातें नहीं जानता है, इसलिये सद्गुरुओंका उदार अभिप्राय नहीं जान करके अपने चित्तकी अतिशय ओछाई तथा दुष्टताके अनुसार उनके चित्तको भी अपने समान समझ करके महामोहके वश उन्हें अतत्त्वदर्शी शैव, ब्राह्मण, वौद्ध और दिगम्बरोंके समान मान लेता है। जब यह जीव कर्मग्रन्थिका भेद कर चुकता है और दर्शनमोहनीयके तीन
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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