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________________ १०४ शक्ति रखनेवाले, और निरन्तर आनन्दित तथा अपनी लीलामें लवलीन रहनेवाले, सुस्थित नामके महाराज कहे गये हैं, सो यहां अशरीरी अवस्थामें वर्तमान् परमात्मा-सर्वज्ञ-भगवान्को समझना चाहिये । क्योंकि जिस तरह सुस्थित महाराज महलके सबसे उपरके सातवें खनमें रहते हैं, उसी प्रकारसे परमात्मा सर्वज्ञदेव मृत्युलोकसे ऊपर उपर सात राजूरूप मंजिलोंवाले लोक-महलके शिखरपर सबसे ऊपर विराजमान हैं। अर्थात् मनुष्यलोकसे सिद्धशिला पर्यंत जो सात राजू ऊंचा लोक है, वही एक महल है । इस महलमें एकके ऊपर एक इस प्रकारसे जो सात राजू हैं, वे ही सात मंजिलें हैं, और सबके ऊपर सातवीं मंजिलपर सिद्ध महाराज रहते हैं । जिस तरह सुस्थित महाराज नानाव्यापारमय नगरको और उसके वाहिरके पदार्थों को देखते हैं, उसी प्रकारसे परमात्मा सर्वज्ञ नानाव्यापारमय संसारविस्तारको तथा उसके बाहिरके अलोकाकाशको अपने केवलज्ञानके प्रकाशमे हथेलीपर रक्खे हुए आंवलेके समान देखते हैं। इसी तरह सुस्थित नरेंद्रके समान वे अनंतवीर्य और अनंतसुखं ~~ परिपूर्ण होनेसे निरंतर आनंदित रहकर लीलामें लवलीन रहते हैं। दूसरे जीव उनके समान लीलामग्न रहनेके योग्य नहीं हैं, क्योंकि संसाररूप गड्डेमें पड़े हुए जीवोंकी लीला यथार्थमें विडम्बनारूप है। आगे जो कहा है कि, "बड़े २ रोगोंकी अधिकतासे जिसका स्वरूप अतिशय घिनौना दिखता था, ऐसे उस भिखारीको सुस्थित महाराजने दया करके विशेषतासे देखा । " सो इस जीवके विषयमें भी समझना चाहिये। क्योंकि जब यह आत्मा अपने भव्यत्वादि गुणोंका परिपाक होनेपर इस कोटिमें आरूढ होता है, अर्थात् सम्यक्व प्राप्त करनेकी योग्यता रखनेवाले जीवोंकी श्रेणीमें प्रवेश करता है,
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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