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________________ १०३ शिथिल होता है और इसके परिणाम कोमल हो जाते हैं, तब भी उक्त, विचार होते हैं । शासनमंदिरसम्बंधी विचार करनेमें प्रीति भी इसे उसी समय होती है। उस समय यह इस बातका खेद करता है कि, मैंने शासनमंदिरसम्बंधी विचार पहले क्यों नहीं किया ? फिर जिनमार्गके उपदेशोंका आश्रय लेता है, और जैनधर्ममें जिनका चित्त लवलीन रहता है, ऐसे दूसरे लोगोंका उनको अच्छा समझकर बहुत सत्कार करता है । यह सब कथन जो लघुकर्मी जीव (निकटसंसारी) सन्मार्गके समीपवर्ती होते हैं, चाहे उन्होंने मिथ्यात्व कर्मग्रंथिका भेद किया हो, चाहे न किया हो, सम्यग्दर्शन जिनके आगे (समीप) रहता है, और कुछ कालतक जो भद्रकभावसे (निकटभन्यपनेसे) रहते हैं, उनके सम्बंध किया गया है । अभिप्राय यह है कि, प्राप्त होनेकी तयारीमें जीवकी ऐसी दशा होती है और उस समय उसके मनमें ऊपर कहे हुए विचार उठते हैं।। तदनन्तर परमेश्वरकी सकल कल्याणकी प्राप्ति करनेवाली दृष्टिमें आनेपर इस जीवका जो वृत्तान्त होता है, वह पहले कहा जा चुका है । उसका सार यह है कि, “पूर्व कथामें कहा हुआं भिखारी सचेत होकर जिस समय ऊपर कहे हुए विचार करता था, उसी समय महाराजने उसकी ओर दृष्टि डाली ।" इसी प्रकार यह जीव जब अपने कर्मोंकी लघुता होनेसे अर्थात् आयुकर्मको छोड़कर. शेष कर्मोंकी स्थिति कम हो जानेसे सन्मार्गके सम्मुख होता है और भद्रकभावमें रहता है, तब इसकी योग्यतासे इसपर परमात्माकी दृष्टि पड़ती. है। वहां जो उक्त सुन्दर महलके सातवें खनपर रहनेवाले, उसके नीचेके नानाव्यापारमय अदृष्टमूलपर्यन्त नामके समस्त नगरको सर्वदा देखनेवाले, नगरसे वाहिरके भी समस्त पदार्थोके देखने में अरोक
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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