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________________ करनेमें चतुर होते हैं; अतएव इस अनुपन प्रवृत्तिके कारण वे सुमट शब्दके योग्य हैं। वे निरंतर सर्वज्ञ महाराजका ध्यान करते हैं, नाचार्यल्प राजानोंकी आराधना करते हैं, उपाध्यायल्प मंत्रियोंके उपेदशके अनुसार चलते हैं, गीतार्यवृपभस्प नहायोचाओंके वचनोंको मानकर सन्पूर्ण धर्न कायोंमें प्रवृत्ति करते हैं, अपने बालापर अनुग्रह करनेकी बुद्धिसे उन गणाचिन्तनको जो कि साधुओंकर उपकार करनेमें लगे रहते हैं, और इस कारण जिन्हें नियुक्षोंकन (कामदा. रॉक्स) स्थान मिला है; वन, पात्र, भोजन, पानी, औपपि, नासन, साँथरा, वसतित नादि निरन्तर विविपूर्वक दिया करते हैं, तलवनिकोंके ( कोटपालक ) मनान सन्पूर्ण ही सामान्य साधुलोको इसका विचार किये विना कि कौन करका दीक्षित है शुद्ध मन वचन कायसे नमस्कार करते हैं, स्यविराओं के समान अजिनामोंकी भक्तिपूर्ण हदयसे बन्दना करते हैं, विलासिनी स्त्रियोंके समान बतलाई हुई श्राविकानोंको सारे धर्म कार्योंमें उत्साहित करते हैं, और भगवानन जन्नाभिषेक, नन्दीश्वरद्वीपक्षी यात्रा, और मर्त्यलेक (बईद्वीप) सन्वन्धी दशलक्षण आदि पर्वोकी यात्रारूप नित्य नैनित्तक कार्य भगवानके शासनरूप नन्दिरमें निरन्तर करते हैं। अधिक कहने से क्या ? वे सर्वज्ञ भगवानके शासनको छोड़कर वास्तवमें न दूसरा कुछ देखते हैं, न मुनते हैं, न जानते हैं, न श्रद्धान करते हैं, न उन्हें अन्य कुछ रुवता है, और न वे जन्य किसीकी पालना करते हैं। केवल जैनशासनको ही कल्याणकारी नानते हैं। अतिशय भचिके कारण वे सर्वज्ञ महाराज तथा जाचार्य महाराज नादिको बहुत प्यारे लगते हैं और इस लिये उन्हें उसी मन्दिरमें निवास करनेवाले विनयवान् तथा बड़ीभारी ऋद्धिक धारण करनेवाले एक बड़ेभारी कुटुन्के समान समझना चाहिये । अन्य धर्मियों तो उस भवनमें निवास ही कहांसे हो सकता है !
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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