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________________ ९३ दिक शत्रु जल गये हैं और बाहिरी सत्र क्रियाएं शान्त हो जानेसे वे संसारको आनन्दित करनेवाले हैं तथा गुणरूपी रत्नोंसे भरे हुए लोकमें स्वामीपनकी योग्यता रखते हैं अर्थात् सबसे अधिक गुणी हैं, इसलिये उपमारहित 'राजा' शब्दके वाच्य हैं वा राजा कहलानेके योग्य हैं । और मंत्रियोंके स्थानमें उपाध्यायोंको जानना चाहिये। क्योंकि वे वीतराग भगवानके आगमोंका सार जानते हैं, इसलिये संसारके सारे व्यापारोंको साक्षात् के समान देखते हैं, वुद्धिसे रागादि वैरियोंके समूहको पहिचानते हैं, और रहस्यके ( प्रायश्चित्तके) ग्रन्थोंमें भलीभाँति कुशल हैं, इसलिये उन्हें समस्त नीतिशास्त्रके ज्ञाता कहते हैं । और वे ही अपने सुबुद्धिरूपी धनसे सारे संसारको तौलते हैं, इसलिये सत्र प्रकारसे 'अमात्य' शब्दको योग्यताको धारण करते हुए शोभते हैं । कथाके राजभवनमें जो महायोधा कहे गये हैं, वे यहां गीतार्थ वृपभ हैं। क्योंकि चित्तमें सत्वभावनाकी भावना करते रहने से अर्थात् यह विचार करते रहने से कि जीवका कभी घात नहीं होता है, वह अजर अमर है; वे न देव आदिकोंके किये हुए उपसर्गे में चलायमान होते हैं न क्षुभित होते हैं, और न घोर परीपहोंसे डरते हैं । और तो क्या यदि यमराज सरीखे भयंकर उपद्रव करनेवालेको सम्मुख देखें, तो भी वे लवलेश भी नहीं डरते हैं । और द्रव्य क्षेत्र, कालके अनुसार चलनेवाले गच्छों कुलों गणों और संघोंको परम्पराचारित्र के द्वारा मोक्ष प्राप्त करानेवाले हैं, इसलिये उन्हें महायोधा कहते हैं । नियुक्तक अर्थात् कामदार यहां गणचिन्तकों को समझना चाहिये । क्योंकि वे बालक, वृद्ध, रोगी, तथा अतिथि आदि अशक्त और पालन करने योग्य अनेक मुनियोंसे घिरे हुए रहते हैं, कुल गण
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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