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________________ [ ६७ ] " नागरी पाँच क्रियाओं का यहाँ तो वर्णन है, परन्तु यहाँ गणना के अवसर पर विलकुल ही भुला दिया है। इससे आपका महम चचन- विरोध ही नहीं पाया जाता, बल्कि यह भी आपकी ग्रन्थ रचना की विलक्षणता का एक अच्छा नमूना है और इस बात को जाहिर करता है कि आपको अच्छी तरह से ग्रंथ रचना करना नहीं भाता था । इतने पर भी, खेद है कि, आप अपने इस मंत्र को 'जिनेन्द्रागम' बतलाते हैं ! जो प्रय प्रतिज्ञाविरोध, ध्यागमविरोध, आम्नायविरोध, ऋषिवाक्यविरोध, सिद्धान्तविरोध, पूर्वापरविरोध, युक्तिविरोध और श्रमविरोध यदि दोषों को लिये हुए है, साथ ही चोरी के कलंक से कलपित है, उसे 'जिनेंद्रागम' बतलाते हुए आपको जरा भी सम्मा तथा शर्म नहीं आई | x इससे अधिक धृष्टता और धूर्तता और क्या हो सकती है ? यदि ऐसे हीन ग्रन्थ भी 'गिनेन्द्रागम' कहलाने लगे तब तो जिनेन्द्रागम की अभी खासी मिट्टी पलीद हो जाय और उसका कुछ भी महत्व न रहे। इसीलिए ऐसे छद्यवेपधारी ग्रंथों के नम रूप को दिखला पर उनसे सावधान करने का यह प्रयक्ष किया जा रहा है। (ट) त्रिवर्णाचार के में अध्याय में, 'यज्ञोपवीतसत्कर्म eet नत्वा गुरुक्रमात्' इस वाक्य के द्वारा गुरु-परम्परा के अनुसार यज्ञोपवीत ( उपनीति ) क्रिया के कथन की विशेष प्रतिक्षा करते हुए, निम्न पथ दिये हैं:-- गर्भारमे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम् देव राशो गर्भान्तु द्वादशे विश्वः ॥ ३ ॥ ब्रह्मवर्चसकामस्य कार्ये चित्रस्य पंचमे । · रासो बलार्थिनः पठे वैश्यस्येार्थमोऽष्टमे ॥ ४ ॥ सोमीजी को अनुवाद के समय कुछ किमक जरूर पेश हुई है और इस लिये उन्होंने "जिनेन्द्रागम" को " अध्याय " में बदल दिया है।
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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