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________________ [६६] किसी गी प्रन्य में नहीं पाये जाते, और श्रादिपुग्ण से यह स्पष्ट मालूम हो रहा है कि उसमें जो क्रिया-मन्त्र दिये हैं वे ही इन क्रियाओं के असली, आगम-कथित, सनातन और जैनाम्नायी गंत्र हैं । ऐसी हासत में त्रिवर्णाचार पाने मंत्रों की बात यही नतीजा निकलता है कि वे श्रादिपुराण से बहुत पीछे के बने हुए हैं। उनकी अथवा उन जैसे मंत्रों की कल्पना महारकी युग में--संभवतः १२वी से १५ वीं शताब्दी तक के मध्यवर्ती किसी समय में हुई है, ऐसा जान पड़ता है। . (ब) अध्याय के अन्त में, 'पुस्तकहरु ' क्रिया के बाद, भट्टारकनी ने एक पथ निम्नप्रकार से दिया है: * गर्भाधान मोदपुंसवनका सीमन्तजन्मामित्रा यानुपानभोजन व गमनं धौलाक्षराभ्यासनम् । सुप्रीतिः प्रियसूखयो गुरुमुखाच्छालस्यसंग्राहणे एता:पंचदश क्रिया समदिता अस्मिन् जिनेन्द्रागमे ॥१८॥ इसमें, अध्याय-वर्णित क्रियाओं को उनके नामके साथ गणना करते हुए, कहा गया है कि ये पंद्रह क्रियाएँ इस जिनेन्द्रागम में भलेप्रकार से कयन की गई है, परन्तु क्रियानों के बो नाम यहाँ दिये हैं के चौदह है- गर्भाधान, २ मोद, पुंसवन, १ सीमन्त, १ नन्म, ६ ममिया (नाम), बहिर्यान, ८ भोजन, ६ गमन, १० चौस, ११ अक्षराम्यास, १२ प्रीति, १३ प्रियोगब तथा १४ शामग्रहण और अध्याय में जिन कियायों का वर्णन किया गया है उनकी संख्या उनीस है। प्रीति, निषधा (उपवेशन ), न्युष्टि, कर्णवेधन और पान्दोहारोपण *स पद्य के अनुवाद में सोनीजी ने जो व्यर्थ की बचातानी की है वह खादय विद्वानों को अनुवाद के देखते ही मालूम परमाती है। उस पर यहाँ छ टीका टिप्पण करने की जरत नहीं है।
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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