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________________ इतः प्रकृति चाम्यूयास्त पथानायनमः ॥ २१७ ॥ मंत्रानिमापया योग्यं यः क्रियानु पिनियोजयेन् । ' स लोके सम्मति पाति युताधारी हिजोसम् ॥ २१८ ॥ ... -४० वा पर्य। इन पाक्यों से मादिपुराण-पर्णित मंत्रों का खास तौर से गाय पाया जाता है और यह गालग होता है कि जैन श्राम्गायानुसार मलमूलियत के साथ इन क्रियानों के मंत्र हैं। गणधर रचित सूत्र (पासकाध्ययन) अथवा परमागम में उन्हें 'साधनमंत्र' कहा है-क्रियाएँ उनके द्वारा सिद्ध होती है ऐसा प्रतिपादन किया है और इसलिये सब क्रियाओं में उनका पपायोग्य विनियोग होना चाहिये। एक दूसरी जगह भी इस विनियोग की प्रेरणा करते हुए लिखा है कि 'जनमत' में इन मंत्रों का सब क्रियाओं में विनियोग माना गया है, अतः श्रावकों को चाहिये कि षे व्यामोह मया भ्रम छोर कर-निःसंदेह रूप से -इन मंत्रों का सर्वत्र प्रयोग करें। यथा: विनियोगस्तु सांसु क्रियास्येषां मनो जिनः । अम्यामोहावतस्ततः प्रयोज्यास्त उपासः ॥ ३८-७ ॥ परन्तु, यह सब कुछ होते हुए भी, महारयानी ने इन दोनों प्रकार के सनातन और यथाम्नाय + मंत्रों में से किसी भी प्रकार के मंत्र का यहाँ प्रयोग +भाविपुराण में 'तन्मनास्तु यथाम्नायं ' आदि पक्ष के द्वारा इन मंत्रों को जैन प्राचाय के मंत्र बतलाया है। * पाँच अध्याय में, नित्यपूजन के मंत्रों का विधान करने, हुए, सिर्फ एक प्रकार के पीठिका मंत्र दिये है परन्तु उन्हें भी उनके असली रूप में नहीं दिया प्रदर्शन रपया है-अब मंत्रों के शुरू में जोड़ा गया है और कितनहा मंत्रों में 'नमो आदि शब्दों के हित्वं प्रयोग की जगह एकत्व का प्रयोग किया गया है। इसी तरह और भी कुछम्यूना त्रिकता की गई है। आदिपुराण के मंत्र जचे तुजे लोकों में बद्ध है।
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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