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________________ {११] [प]भिषेप प्रचणनये च, विधासमारम्भमशस्तिसिसौ॥ १६५ उदगते भास्वनि पंचमेऽये, मातेऽसरस्वीकार्य शिशूनाम् । , सरस्वती देवधुपालकं च, युद्धोदनारमिपूज्य कुर्यात् ॥ १६ ॥ इनमें से पहला, पच 'श्रीपति ' का और दूसरा विशिष्ट' अपि का वचन है । मुहूर्त चिन्तामणि की पीयूषधारा टीका में भी ये ही विद्वानों के नाम से उधृत पाये जाते हैं। दूसरे पक्ष में 'विनविनायक' की बगह 'चेन्न{पालक' का परिवर्तन किया गया है और उसके द्वारा गणेशजी' के स्थान में क्षेत्रपास की गुरु और चावच वगैरह स पूजा की व्यवस्था की गई है। क्षेत्रपाल की यह पूजन-व्यवस्था आदिपुराल के मिरुद्ध है। सीतरह पर दूसरी क्रियाओं के बर्थन में बो यच, यची, विशाल और जयावियतानों के पूजन का विधान किया गया है, अथवा 'पूर्ववत्पूजयेत् "पूर्ववद् होमपूजां च कृत्वा आदि नाक्यों के द्वारा प्रकार के दसरे देवताओं की मी पूजा का-विसका वर्णन चीप पाँच अध्यायों में है-बो इशारा किया गया है वह सब मी मादि पुराण के विरुद्ध है । श्रादिपुराण में गाग्जिनसेन ने, गर्माधानादिक फियाओं के अवसर पर, इसप्रकार के देवी देवतामों के पूजन की कोई व्यवस्था नहीं की। उन्होंने अामतौर पर सा कियाओं में सिद्धों का बन रखा है, जो 'पोठिया' मन्त्रों द्वारा किया जाता है । बहुतसी क्रियाओं में बर्हन्तो का, देवगुरु का और किसी में प्राचार्यो भादि का पूजन भी बदलाया है, जिसका विशेष-ज्ञान-आदिपुराण के ३८ और 20 से पलों को देखने से मालूम हो सकता है। एतैः पठिकाम ) सिखाचन कुर्यावामानादि क्रियाथियो।
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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