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________________ [ X ] प्रतिज्ञादि - विरोध | / यह त्रिवर्णाचार अनेक प्रकार के विरुद्ध तथा अनिष्ट कथनों से भरा हुआ है । प्रथके संग्रहत्व यादि का दिग्दर्शन कराने के बाद, छान मैं उन्हीं को लेता हूँ और उनमें भी सब से पहले उन कथनों का दिग्दर्शन कराना चाहता हूँ जो प्रतिज्ञा भादि के विरोध को लिये हुए हैं। इस सब दिग्दर्शन से ग्रंथ की रचना, तरतीब, उपयोगिता और प्रमाणता आदि विषयों की और भी कितनी ही बातें पाठकों के अनुभव में जाएँगी और उन्हें यह अच्छी तरह से मालूम पड़ जायगा कि इस ग्रंथ में कितना धोखा है, कितना जाता है और वह एक मान्य नैन अन्य के तौर पर खीकार किये जाने के लिये कितना भयोग्य है अथवा कितना अधिक प्रापति के योग्य है: -- L ● 1 (१) महारक सोमसेनजी ने, प्रन्ध के शुरू में, ' यत्प्रोक्तं जिनसेनयोग्यगणिभिः ' नामक पथ के द्वारा जिन विद्वानों के ग्रन्थों को देख कर — उनके वचनानुसार प्रन्थ रचना की प्रतिज्ञा की है उनमें ' जिनसेनाचार्य' का नाम सब से प्रथम है और उन्हें आपने ' योग्यगणी ' भी सूचित किया है। इन जिनसेनाचार्य का बनाया हुआ एक पुराण ग्रन्थ सर्वत्र प्रसिद्ध है जिसे 'आदिपुराण' अथवा ' महापुराण' भी कहते हैं और उसकी गणना बहुमान्य भार्ष ग्रन्थों में की जाती है। इस पुराण से पहले का दूसरा कोई भी पुराण प्रन्थ ऐसा उपलब्ध नहीं है जिसमें गर्भाधानादिक क्रियाओं का संक्षेप अथवा विस्तार के साथ कोई खास वर्णन दिया हो । यह पुराण इन क्रियाओंों के लिये ख़ास तौर से प्रसिद्ध है । महारकभी ने अन्य के आठवें अध्याय में इन क्रियाओं का वर्णन श्रारम्भ करते I हुए, एक प्रतिक्षा वाक्य निम्न प्रकार से दिया है- Quadimrath
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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